मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

रविवार, 27 नवंबर 2016

वीसीआर. यादों के झरोखे से.

जी न्यूज़ पर अभी वीसीआर पर रिपोर्ट दिखाया गया कि कैसे वीसीआर इतिहास के पन्नों में शुमार में गया। जापान की कंपनी फुनाई जो विश्व में अबतक एक मात्र कंपनी थी वो जुलाई महीने तक वीसीआर बनाती रही लेकिन अगस्त महीने से उसने भी बंद कर दिया। सचमुच कितना जल्दी जल्दी समय बदल रहा है न। आज तक जो चीज़ आपके हमारे लिए सबसे अहम् है कल उसकी कोई पूछ नहीं रह जाती। क्योंकि तकनीक आपकी हमारी हर जरुरत को अपने हिसाब से पूरा करके पिछले चीजों की अहमियत कम कर देता है। मुझे याद है जब क्लास में सर अक्सर बताते थे कि देखो इसको लैपटॉप कहते हैं। लैप मतलब गोद होता है। मतलब गोद पर रखकर चलाते हैं इसलिए लैपटॉप कहते हैं इसको और टेबल में जो रखा रहता है उसको डेस्कटॉप कहते हैं। जल्द ही ऐसा समय आएगा जब पामटॉप में लोग काम करेंगे। मतलब हथेली पर रखकर। तभी मन ही मन सर पर हंसी आ रही थी कि ऐसा कैसे हो सकता है। आखिर लैपटॉप का इतना सब कुछ छोटे से किसी उपकरण में कैसे आ सकता है। देखिये अब ऐसा हो रहा है। मुझे खुद याद नहीं कि मैंने आलमीरा से आखिरी बार अपना लैपटॉप कब निकाला था। अभी भी जो ये लिख रहा हूँ वो मोबाइल पर ही लिख रहा हूँ। इतना तो कुछ नहीं हर दिन ऑफिस भेजने वाले स्टोरी के स्क्रिप्ट के लिए भी अब डेस्कटॉप और लैपटॉप की जरुरत नहीं पड़ती। मतलब अब लैपटॉप भी इतिहास बनने ही वाला है।
इसी कड़ी में टीवी भी है। जिसतरह से तमाम मोबाइल कंपनिया ऑनलाइन टीवी देखने के ऑफर दे रही है उसे देख एचडी टीवी के विज्ञापन में उस बच्चे का वो गाना सच लगने लगता है जिसमें वो कहता है डब्बा है डब्बा अंकल का टीवी डब्बा। मतलब कभी रामायण और महाभारत को घर घर तक पहुँचाने वाला टीवी भी डब्बा हो जायेगा।
टीवी का जन्म मुझे याद है। पुरे गाँव में सिर्फ अनिल केडिया चाचा के घर टीवी थी। रामायण के वक्त पूरा गाँव उनके द्वार पर उमड़ता था। चाचा, चाची, फुआ, दादा, दादी सभी हाथ जोड़कर पूरा सीरियल देखते। इंदिरा गांधी के निधन के वक्त गाँव में दूसरा टीवी अन्नू चौबे चाचा के यहाँ आया। तब से गाँव के लोग 2 हिस्सों में बंट गए। आधा गाँव अनिल चाचा के यहाँ टीवी देखने जाता तो आधा अन्नू चाचा के यहाँ। उसके बाद धीरे धीरे कुछ और टीवी गाँव में इम्पोर्ट कर मंगवाई गई। मुझे आज भी याद है कि कैसे शाम के समाचार देखने के लिए मदन केडिया जो अब नहीं रहे के खिड़की पर पूरा मोहल्ला टूट पड़ता था। समाचार शुरू होने से एक घंटे पहले से लोग खिड़की के सबसे आगे की जगह को लूटते थे। इसी भीड़ में हम भी हुआ करते थे। फिर कुछ और लोगों के घर टीवी आई। चित्रहार का क्रेज चला। रात को पढ़ते वक्त दीदी दूसरे के घर चित्रहार देखने भेजती थी। लौटकर आने के बाद बताना पड़ता था कि इस सप्ताह कौन सा गाना कितने नम्बर पर रहा। अब तो हर घर में टीवी है। खुद मेरे घर 3 टीवी है। अब तो गाँव वाले मुझे टीवी पर देख खुश होते है। कोई ऐसा दिन नहीं रहता जब गाँव से किसी का कॉल नहीं आता।

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