मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

शनिवार, 19 अक्तूबर 2013

अंतिम संस्कार !

रांची के मुक्तिधाम में भीड़ थी, पंडित जी धारा प्रवाह मन्त्र उच्चारण कर रहे थे, दीवारों पर लिखी खुबशुरत लाइने जिंदगी और मौत की खुबशुरत परिभाषा गढ़ रहे थे, परिवार और समाज के शोकाकुल लोगों के चेहरे पर गम की लकीरें थी तो किसी बेटे के कंधे पर माँ-बाप के लौट के न आने की  उम्मीदों को तोड़ता उनका जनाजा, तो कोई बेटा अपने भगवान जैसे बाप को एक पुतला मान उसे मुखाग्नि दे रहा था । दरअसल रांची के बरियातू से बैद्यनाथ सिंह ,राधिका देवी ,भीम सिंह ,रवि सिंह और किरण देवी केदारनाथ की यात्रा के लिए गये थे.  जो बादल फटने की घटना के शिकार हो गये और अब तक लापता हैं. परिजनों ने उन्हें खोजने की खूब कोशिश की लेकिन निराशा हाथ लगी।  जब चार महीने बीत गए सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली और हर एक कोशिश के बाद भी उन्हें नहीं ढुढा जा सका तो घरवाले ने सांकेतिक रूप में उन सभी का अंतिम संस्कार कर दिया। अंतिम संस्कार इसलिए किया गया क्यूंकि गुम हुए लोगों का डेथ सर्टिफिकेट भी नहीं बन पा रहा था जिसके आधार पर बीमा के पैसे मिलने थे. लेकिन हिन्दू धर्म के अनुसार एक बार किसी का अंतिम संस्कार कर दिया तो घर परिवार और समाज उसे मृत मान लेता है. ऐसे में अब इन लापता लोगों में से कोई लौटकर घर भी आ जाता है तो उसे समाज स्वीकार नहीं करेगा।  लेकिन इन सब के बीच सवाल उठता है की आखिर वो सरकार कहाँ है जो उस वक्त कई घोशनाए की थी. चार महीनो में सरकार ने अपने स्तर से इन्हें खोजने की प्रयाश क्यूँ नहीं की. मदद के रूप में जो रकम मिलने थे वो आखिर अभी तक क्यूँ नहीं मिले।

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

झारखण्ड का अपने आबा के नाम ख़त।

आबा जोहर !
मैं आपकी बेटी झारखण्ड। बस कुछ ही महीनो बाद मैं तेरह वर्ष की हो जाऊँगी। इन तेरह वर्षों में मैं नौवी बार किसी और की होने जा रही हूँ। घर और बाहर वालों ने मिलकर मेरे लिए लड़का भी चुन लिया है। लड़का है तो कड़क मूंछ, सॉफ्ट नेचर, जीन्स और कुर्ते वाला लेकिन भरी जवानी में भी पप्पा के आशीर्वाद के बिना वो कुछ भी नहीं कर सकता। यह उसका संस्कार नहीं आबा बल्कि उसकी लाचारी है। हलांकि लड़का धीरे - धीरे बाप की राह पर चलते हुए अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहा है। लेकिन आबा इससे पहले जितने भी मेरे हुए वे भी अपने दम पर बारात नहीं ला पाए थे इसलिए समय से पहले हर बार मेरा घर उजड़ा। इस बार भी वही हो रहा है। लड़का तैयार है लेकिन उसके दोस्त सगे संबंधी ऑंखें तरेरे हुए हैं। मेरी होने वाली ननद का भी अभी तक इस रिश्ते को समर्थन नहीं मिला है। शायद मेरे दामन पर लगे आठ - आठ तालाक के दाग देखकर वो डरे सहमे हैं। सोच रहे हैं मुझमे ही कुछ खोंट है। लेकिन इसमें मेरी गलती क्या है आबा ? मैंने तो आजतक समझौता ही किया है। जब जिसने चाहा उसके अनुसार खुद को ढाल ली। दहेज़ के नाम पर सबने मुझे अपने अनुसार लुटा लेकिन दाग के छींटे मेरे ही दामन पर पड़े। आबा आज एक बार फिर मेरे नाम पर मंडी सजी है बोली लग रही है। मेरे नाम पर सब अपना मान-सम्मान चाह रहे हैं लेकिन किसी को भी मेरे मान सम्मान की फ़िक्र नहीं है। आबा, दहेज़ के नाम पर कैसे आज भी बेटी आग के हवाले की जाती है, शरीर पर सैकड़ों जख्म सहती है यह देखना हो तो आप मुझे देख सकते हैं। आबा इन सबों ने मिलकर मेरी हालत ऐसी कर दी है की दिल से यही निकलती है की अगले जन्म मुझे बिटिया न बनायो। आबा मैं नहीं चाहते हुए भी नौवी बार किसी और की होने जा रही हूँ। क्यूंकि मुझे पता है की मेरे भाग्य में सिर्फ दुर्भाग्य ही लिखा है।
जोहर !!

संथाल परगना !

देश के सबसे पिछड़े 12 जिलों में 6 जिला झारखण्ड के संथाल परगना का है। सरकारी आंकड़े के अनुसार संथाल परगना की 27 फीसदी आबादी शिक्षित है तो 72 फीसदी कोपोषित। देवघर, दुमका, गोड्डा, साहेबगंज और पाकुड़ झारखण्ड के ये 6 जिले ऐसे हैं जो सरकार द्वारा निर्धारित रेड कोरिडोर में आते ही नहीं हैं। मतलब सरकार अभी तक यह मानकर चल रही है की संथाल परगना के ये 6 जिले नक्सलवाद से दूर हैं। इसलिए विकास के नाम पर इस क्षेत्र के लिए न तो कोई विशेष पॅकेज मिलती है और न ही किसी का कभी इस क्षेत्र की और ध्यान ही गया है। जबकि संथाल परगना के एकमुश्त वोटों से ही झारखण्ड में सरकार की रूपरेखा तय होती है। संथाल परगना के वोटों से ही बाप-बेटे और बहु की राजनीति चमकती है। फिर भी संथाल परगना में कुंडली मारकर बैठने वाली पार्टी ने उस क्षेत्र के लिए कुछ नहीं किया। दुमका को उप राजधानी का दर्जा तो दिला दिया पर आज भी उसकी स्थिति किसी सुदूर बदइन्तेजाम गाँव से बेहतर नहीं है। पिछले दिनों जिस-जिस सड़क से महामहिम गुजरने वाले थे सिर्फ उन्ही सड़कों पर अलकतरे और चुने का लेप चढ़ाया गया बांकी की सड़कें आज भी चीख चीख कर पूछ रही है की क्या यही उपराजधानी है ? साहेबगंज गोड्डा और पाकुड़ की स्थिति तो और भी दयनीय है। आज भी वहां के लोग अपनी भूख मिटाने के लिए आम की गुठली को पानी में उबाल कर पीते हैं। चूल्हे की आंच को बुझने नहीं देते क्यूंकि उनके पास माचिस खरीदने के पैसे नहीं........

पढ़कर क्या करेगा साहब पढने से आदमी बईमान हो जाता है।

ये तस्वीर है जमीन से हजारो फीट ऊपर पहाड़ो पर बसे साहेबगंज जिले के दीवाना बस्ती की। 27 घरों की इस बस्ती में पहाड़िया जाति के 60-70 लोग रहते हैं। जिनकी अपनी सरकार है और ये खुद अपनी बस्ती के प्रखंड विकास पदाधिकारी भी हैं। झारखण्ड और भारत सरकार नाम के किसी भी व्यवस्था से इनका कोई वास्ता नहीं। न सरकार के नुमाईन्दे इनके द्वार तक जाते हैं और न ही ये सरकार की निकम्मी व्यवस्था के आगे हाथ फ़ैलाने। बांस बल्ली मिट्टी और खपड़ेल के सहारे खड़े इनके घरो की नीव भले ही कमजोर हो लेकिन इनके इरादे काफी मजबूत हैं। तभी तो दिखावटी दुनिया से अलग अपनी एक अलग समाज बसा रखा है। टेडी मेडी सकरी और घनघोर जंगलो के रास्ते से होते हुए जब मैं ऊपर चढ़ रहा था तो रास्ते में चंदा पहाड़िया नाम का व्यक्ति मिला। उसने बताया की बस्ती के लोग महीने दो चार महीने में एक बार नीचे उतरते हैं। जब कोई बीमार पड़ जाता है तो ऊपर ही जड़ी बुटी से इलाज करते फिर भी नहीं बचता तो ऊपर ही दफना दिया जाता है। मैंने पूछा और बच्चों की पढाई ? पढ़कर क्या करेगा साहब पढने से आदमी बईमान हो जाता है। अफसर लोग को देख रहे हैं न। इसलिए जबतक अनपढ़ है तबतक ठीक है। कम से कम बस्ती की इज्ज़त बची है। और वैसे भी यहाँ कौन सा स्कूल है। नीचे उतरेगा तो बहक जायेगा। चन्दा बता रहा था ऊपर ही खाने के सामानों की अच्छी खेती हो जाती है। बस मिट्टी के बर्तन में बनाते हैं और झरने का पानी पीकर मस्त रहते हैं। ढोल नगाड़ा सब ऊपर रखे हैं जब जी करता मन भर बजाते हैं और दम भर नाच लेते हैं। क्या कीजियेगा साहब हम बस्ती वाले का जीवन तो इसी में बीत रहा है की कैसे आज के भोजन का इन्तेजाम हो जाये बस। इसलिए नीचे वाले हमलोग के बारे में कहते हैं ये सब आदमखोर है। जो ऊपर जाता है उसे मारकर खा जाता है। बताइए साहब ऐसा रहता तो आपको लौटकर जाने देते। मैंने मन ही मन कहा सचमुच आपलोग ऊपर वाले हो और यह आपका बस्ती नहीं स्वर्ग है। मन कर रहा था संसार के मोह माया से दूर इसी दुनिया में बस जाऊ।

जिसके लिए सरकार बन रही है उसकी हालत देखिए......


झारखंड में सरकार बनने जा रही है लेकिन जिसके लिए सरकार बन रही है उसकी हालत देखिए...... यह तस्वीर है संथालपरगना के देवघर के एक प्राइवेट क्लिनिक में भर्ती एक बच्चे की...... जी हाँ वही संथाल परगना जिसकी राजनीति कर दिल्ली से फैसियल कराकर लौटने के बाद युवा नेता जी जीन्स पर नेहरु कोर्ट पहनने को तैयार हो रहे हैं। नेता जी ये तस्वीर यह बताने के लिए काफी है की आपके राज्य और आपके क्षेत्र में कुपोषण की क्या स्थिति है। पुरे राज्य में 57 फीसदी कुपोषित बच्चे हैं तो आपके संथाल परगना में यह आंकड़ा 72 का है। समाज कल्याण विभाग के अनुसार राज्य में 5.5 लाख बच्चे कुपोषित हैं। इसी तरह 78.2 प्रतिशत किशोरियां एवं 70 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। आदिवासी समुदाय की स्थिति तो और भी बदतर है। इस समुदाय के पांच वर्ष से कम आयु के 80 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं तथा 85 प्रतिशत महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं। पिछले एक दशक में झारखण्ड में 100 से ज्यादा लोगों की भूख से मौत हो चुकी है जिनमें 40 लोग आदिम जनजाति समुदाय से हैं। तो ऐसे में समझा जा सकता है की अबतक सरकार ने पाँच सितारा होटल के मध्यम रौशनी, जोरदार तालियों और दमदार भोजन के साथ जितनी भी योजनाओ को धरातल पर उतारा है उसकी हकीकत क्या है।

यानि की मतलब साफ़ है अगर थोडा भी विकास चाहिए तो पहले धमाके करो !

आँखों को सुकून और चेहरे पर मुस्कान बिखेरनेवाली यह तस्वीर है झारखण्ड के घोर नक्सल प्रभावित खूंटी जिले की। PLFI का गढ़ माने जाने वाले खूंटी की तस्वीर अब बदल रही है। बच्चों के शरीर पर सरकारी पोशाकें दिखने लगी है, जुबान से किताबी भाषा फूटने लगी है, कंधो पर किताबों के झोले टंगने लगे हैं और हाथों में कलम ने जगह ले ली है। हालंकि अभी भी यह एक सीमित दायरे तक ही सम्भव हो पाया है। बहुत से इलाके अभी ऐसे हैं जहाँ के लोग विकास की किरणों को निहारने के लिए सरकारी सवेरा होने का इंतज़ार कर रहे हैं।

वह खूंटी ही था जहाँ कुंदन पाहन नाम का सिक्का चलता था। वह खूंटी ही था जहाँ सरकारी कर्मचारी जाने से पहले घर वाले से आशीर्वाद लेते थे और पुलिस सौ बार सोचती थी। लेकिन समय के चक्र ने खूंटी के समय को भी बदल दिया है। विकास में पिछड़े खूंटी को बदलने में हर ओर से प्रयास की गई और नतीजा सबके सामने है। सरकार वहां नोलेज सिटी बनाने की बात कर चुकी है। देश और विश्व स्तर के कालेज और विश्वविध्यालय के छात्र छात्राएं आज यहाँ शोध करने आते हैं। बाहर से आई लड़कियां बेपरवाह होकर महीनो तक जंगलो में रहती है। सुरक्षा के व्यापक इन्तेज़ामात हैं। सरकार हर उस सुविधा को पूरा करने में थोड़ी ज्यादा तत्पर दिखती है जिसके अभाव में ग्रामीणों ने हथियार उठाये थे। अधिकारी समय पर कार्यालय आये इसके लिए उपायुक्त ने प्रखंड कार्यालय तक में बायो मैट्रिक सिस्टम लगवा दिया है। सभी अधिकारीयों को रात में खूंटी में ही रुकने का निर्देश है। अधिकारी रांची न भाग आये इसके लिए रांची खूंटी मार्ग पर नाकेबंदी की जाती रही है ..... शायद इतने प्रायशो का ही नतीजा है की खूंटी अब शांत है।

यानि की मतलब साफ़ है अगर थोडा भी विकास चाहिए तो पहले धमाके करो और अपने क्षेत्र को घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र घोषित करवाओ। तब शायद सरकार की ध्यान आपके क्षेत्र की ओर पड़ेगी। नहीं तो संथाल परगना की तरह ही उपेक्षित रह जायेगा आपका क्षेत्र। हालाँकि अब तक शांत रहने वाले संथाल परगना की धरती पर भी धमाके होने शुरू हो चुके हैं। नक्सलियों ने अपनी जोरदार दस्तक संथाल की धरती पर पाकुड़ में हुए धमाकों के साथ दे दी है। इस धमाके ने संथाल परगना की विधि व्यवस्था की स्थिति पर से पर्दा उठा दिया है। यह भी बता दिया है की कैसे वहां के जनप्रतिनिधि वहां से वोट बटोर कर रांची में डील करते हैं। जनता बेहाल पड़ी है और नेता जी राजधानी में पढ़कर मालामाल हुए जा रहे हैं। प्रखंड से लेकर जिले तक नेता जी अपने पसंद के अधिकारीयों को रखवाते हैं और अपनी मर्जी से काम करवाते हैं। शायद यही सब वजह है की मेहनतकश संथाल के लोग भी अब बन्दुक थामने को विवश हैं और निर्दोष पुलिस वाले अपने प्राणों की आहुति देने को मजबूर हैं।

अँगना में आई हमार भौजी !

24 व्यक्तियों का एक संयुक्त परिवार। दादा-दादी, चाचा-चाची, बड़का बाबु-बड़की माई, बड़की दीदी-छोटका भैया सबसे भरा हुआ। सबके अरमानो का व्यंजन एक ही आंच पर एक ही चूल्हे पर पकता। एक ही छत के नीचे सभी स्वप्न के हसीन निद्रा में लीन होते। तो एक ही कमरे में जिंदगी कभी हिचकोले खाते तो कभी सपाट दौड़ते बचपन से करवट लेते लेते जवानी की दहलीज़ की ओर बढ़ता।

समय के काल चक्र में फंस दादा-दादी दूर हो गए। बस उनकी यादें शेष है। जो सुख की हर घडी में उनके होने और न होने के एहसास को हम बाईसों के जेहन में एक साथ आने और जाने को मजबूर करता रहता है। कभी-कभी जुबान से बेबस शब्द फुट ही पड़ते हैं की आज बाबा होते तो कितना खुश होते !

आज जब हम 14 भाई बहन में सिर्फ 6 भाइयों में सबसे बड़े बबलू भैया की शादी है तो फिर हम सब अचानक से 15-20 साल के पीछे की जिंदगी में खो जाते है। जब बाबा कहा करते थे "बिना बबलू के शादी देखले ना मरब। " तभी बाबा थोडा विस्तार से बताते और कहते की बबलू के शादी में हम फलाना कंपनी के धोती पहनब। ऐसे जाइब और वैसे करब। हमसब भाई बहन बाबा के मुख से ऐसा सुन खूब आनंदित होते और मजे लुटते। बाबा के बात को और जोर तब मिलता जब बबलू भैया खुद भी उनकी बातों में हाँ में हाँ मिलाकर उनकी बातों को आगे बढ़ता और कहता - "हम तह एकदम देहात में बिहाह करब। जहाँ न सड़क होई न कोई गाड़ी जाय पारी" तभी बुची दीदी टोकती और पूछती की "तह सोसरारी कैसे जइबे ?" तब तपाक से बबलू भैया फिर से कहता की "हम सोसरारी ना जाइब। सनिया के भेज देब। इहे जाई। अड्डा पर आगे आगे लाल साड़ी और लाल चप्पल पहन के हमार जनानी जाई और पीछे से माथा पर डोलची लेके सनिया। "

दादा - दादी के रहते 2 दीदी की शादी हुई। और उनके गुजरने के बाद फिर 4. लेकिन जब 14 भाई बहनों में पहले भाई की शादी तय हुई तो एक बार फिर सबके अरमान एक साथ जाग उठे। जिन्होंने अब तक अपने उत्साहों से यही सुनकर समझौता किया था की बेटी का शादी है। तभी तो सबसे बड़ी दीदी का बेटा अमन जो अब आठवी में पढ़ने लगा है। डीजे की धुन पर थिरकने को आतुर हुए जा रहा है। पूछने पर कहता है "मामा का शादी है नाचेंगे नहीं।" हम बांकी बचे पांचो भाइयों का समय इसी में व्यतीत हुए जा रहा है की बारात में कैसे क्या करना है। दीदी और माँ लोग साड़ी दर साड़ी और साड़ी के रंग और डिजाईन बदलने में मशगुल है। तो फुआ भी अपनी पतोह और पोते के साथ पहले भतीजे की शादी में मस्त है। तो परिवार की इज्ज़त पर कोई दाग न लगे पापा लोग इसी में व्यस्त है। खाने से लेकर रहने तक पर बारीकी से नज़र रखे हुए।

बारात 19 को निकलने वाली है लेकिन शादी तय होने के साथ ही घर परिवार में उत्सव और त्यौहार का माहौल था। महीनो पहीले से मरम्मती और रंग रोगन का काम चल रहा था। ताकि इस परिवार में आने वाली पहली बहु को कोई कष्ट न हो। अब बस भौजी के पाव इस आंगन में पड़ने ही वाले है। इसलिए बस भौजी से यही उम्मीद है की तिलक में चढ़े कूलर की ठंडी हवा की तरह इस परिवार के मिजाज को भी ठंडक पहुचाते रहे।

वारिशतांड़ LIVE !!

अलकतरे से छलछलाती काली सड़कें और उसपर पड़ी सफ़ेद पट्टी..... सड़क के दोनों किनारे कमर तक सफ़ेद रंग से रंगे हुए झूमते गाते हरे भरे पेड़.... देख ऐसा प्रतीत होता जैसे गोड्डा के सरकंडा मोड़ से 19 किलोमीटर तक सफ़ेद धोती और सर पर पत्तों का मुकुट पहने दोनों हाथ जोड़ कोई हमारा स्वागत कर रहा हो। गाड़ी जैसे जैसे वारिशतांड़ की ओर बढती है सड़क के किनारे खड़े लोग गाड़ी की ही रफ़्तार से हर बार अपनी गर्दन को घुमा हर उस चमचमाती कारों पर निगाहें दौडाते हैं जो कलतक इस राश्ते पर झांकी मारने तक नहीं आते थे।

सुंदरपहाड़ी से 3-4 किलोमीटर पहले गाड़ी दाहिने मुड़ती है। जिंदल के कार्यालय और राष्ट्रपति के कार्यक्रम स्थल को चीरती हुई जब हम करीब 3 किलोमीटर आगे बढ़ते है तो कुछ खुबसूरत झोपड़ियाँ दिखती है। मिटटी से बनी झोपड़ियों के दिवार की चिकनाहट और उसपर बनी कलात्मक डिजाईन से गाँव के लोगों की मेहनत और कला का साफ पता चलता है। चापानल पर आदिवासी स्त्रियाँ और बच्चे स्नान करते दिखते हैं। कुछ और आगे बढ़ते हैं तो सड़कों पर महुआ सुख रहा दिखता है। झारखंडी अंगूर को ऐसे सड़कों पर पड़ा देख रहा नहीं जाता कैमरे निकाल इस सुंदर और मोहक तस्वीर को कैमरे में कैद करता हूँ। उसके ठीक बगल में घर के चौताल पर एक व्यक्ति पेड़ की छाल से रस्सी बनाता दिखता है। मेरे मुख से जोहर शब्द फूटते ही सामने बैठा व्यक्ति मुस्कुराकर कहता है जोहर। जब मैं उनसे जानना चाहा की क्या आपकी भी जमीन जिंदल के लोग ले रहे हैं? तो वो कुछ भी कहने से इंकार कर देता हैं। जवाब में सिर्फ इतना मिलता है की जो भी कहेंगे ग्राम प्रधान कहेंगे।

थोड़ी दूर और आगे बढ़ते हैं तो झोपड़ियों के बीच एक खुबसूरत सा घर दिखता है। दूर से ही यह साफ़ हो जाता है की वही ग्राम प्रधान का घर होगा। दरवाजे पर दस्तक देते ही चैन से सो रहे ग्राम प्रधान डॉ श्रीकांत राम निकलते हैं और जिंदल की सराहना करते यही कहते हैं की सभी गाँव वालों ने जमीन अपनी मर्ज़ी से दी है। लेकिन जब ग्राम प्रधान के साथ गाँव वालों से बात करने हम निकलते हैं तो एक भी ऐसा शख्स नहीं मिला जो यह कह दे की उसने जमीन अपनी मर्जी से दी है। कुछ लोग कैमरे के सामने बोले भी तो जिंदल के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते दिखे। लेकिन ग्राम प्रधान यही कहकर बात को टालते हैं की अनपढ़ लोग है ज्यादा बोलते नहीं या फिर इन्हें समझ में ही नहीं आता।

तीन दिनों तक गाँव के चक्कर लगाने के बाद यही समझ में आया की जिंदल ने सरकार और प्रशाशन के दबाव में गाँव वालों की जमीन अपने नाम कर ली। अभी तक न किसी को पूरा पैसा मिला न योग्य को नौकरी। अब गाँव वाले जिंदल के कार्यालय से लेकर उपायुक्त कार्यालय तक चक्कर लगा रहे हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। क्यूंकि जिंदल ने हर उस जुबान पर गाँधी को खड़ा कर रखा है जिसकी जुबान की समाज में थोड़ी भी इज्ज़त और जोर है।

(वारिशतांड अबतक झारखण्ड के मानचित्र पर कोई मायने नहीं रखता था। गोड्डा जिले के आधे से अधिक ऐसे लोग होंगे जिनके कानो तक इस गाँव के नाम की पुकार नहीं पहुंची होगी। लेकिन अब गोड्डा जिले का यह गाँव सुर्ख़ियों में है क्यूंकि जिंदल ने वारिशतांड में 1320 मेगावाट का थर्मल पॉवर बैठाया है।)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

प्रतिभा की भीड़ में दिखी झारखंड की असली बेटी !

गोल्ड मेडलिस्ट मुनिता कुमारी से बात करते हुए  मै !

तंगहाली के दौर से लड़ते हुए अपनी मुकाम को हाशिल करने का जज्बा गिने चुने लोगों को नशीब होता है। क्यूंकि मुश्किल दौर में अक्सर हिम्मत जवाब दे देता है और उम्मीदे दम तोड़ देती है। लेकिन जो विपरीत परिस्थिति में भी खुद को संभाल लेता है और तमाम रुकावटों को दरकिनार कर आगे बढ़ता है वही मुक्कदर का सिकंदर कहलाता है।
रांची विश्वविध्यालय के चकाचौंध भरे 27 वें दीक्षांत समारोह में वैसे तो 38 मेहनतकश छात्र छात्राओं के गले में सोने का मेडल टंगा और उनका चेहरा पुलकित हुआ लेकिन इस भीड़ में एक ऐसी लड़की दिखी जिसकी आँखें मेडल पाते ही छलक उठी। गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के गरीब और मजदुर परिवार से आने वाली मुनिता कुमारी रांची में रेज़ा कुली का काम कर पढाई कर रही है। मुनिता को कुडुख में गोल्ड मेडल मिला।
नक्सल प्रभावित इलाके से राजधानी में पढाई करने पहुंची मुनिता महीने में एक सप्ताह रेज़ा का काम करती है और फिर अपने पढाई पूरी करती है। राजधानी रांची के कई आलीशान मकान मुनिता के मेहनत के गवाह हैं जहाँ उसने अपना खून और पसीना सिर्फ इसलिए बहाया क्यूंकि आज का यह सपना उसके आँखों में उस वक़्त बसता था।
काश मुनिता के तरह ही सपनो को हकीकत में बदलने का यह जज्बा झारखण्ड के सुदूर गाँव में बसने वाले उन लाखों बेटियों के लिए एक रौल मॉडल हो जो गरीबी तंगहाली और समाज के पिछड़ेपन के कारन अपने सपने को अँधेरे में दफ़न कर देती है। मेरा सलाम है मुनिता के इस जज्बे को और पैगाम है मुनिता के रस्ते पर चलने वाली उन तमाम बेटियों को जो अपनी सफलता से झारखण्ड का नाम गर्व से ऊँचा करेगी।

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

क्रिकेट

आज के लोग समझते हैं क्रिकेट देखने और क्रिकेट के बारे में चर्चा करने से वे नए ज़माने के लोग कहलायेंगे। शायद इसलिए क्रिकेट का ककहरा भी नहीं जानने वाले क्रिकेट की चर्चा में मशगुल हैं और खुद को मौड साबित करने में तुले हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक गाँव की लड़की शहरी बनने के चक्कर में पूरा मुह लिपस्टिक से पोत लेती है और बड़ा ही कोणफिड़ेंस से क्लोजअप स्माइल छोडती है। दरअसल क्रिकेट भारत में देश भर के तंग गली मोहल्ले और रूखे सूखे मैदान से होते हुए कब अरबों का धंधा हो गया पता ही नहीं चला। कब रांची के गुदड़ी मैदान में माँ - बाप की डांट फटकार सुनकर पचास पचास रुपये का मैच खेलने वाला अपना माही इतना बड़ा सितारा बन गया पता ही नहीं चला। कब किसी की भी फुसफुसाहट तक को सुनने वाला माही पांच घंटे तक हजारों की संख्या में माही माही की आवाज़ बुलंद करने के बाद भी अपने चकाचौंध में बहरे हो गया पता ही नहीं चला। कब हाथों में हाथ डाल कर साथ चलने वाला अपना माही उसी हाथ पर पुलिस के डंडो का जख्म दे गया पता ही नहीं चला। कब रेडियो से निकलकर क्रिकेट टेलीविजन पर छा गया पता ही नहीं चला। कब अख़बार के एक कोने में छपने वाली क्रिकेट की खबर देखते ही देखते हेड लाइन बन गयी पता ही चला। अगर कुछ पता चला तो यह की दुनिया की छाती पर हॉकी का गुमान रौन्धने वाले आज हासिये पर हैं और हम अपनी ही पहचान को खोकर खुद पे इतर रहे हैं। किसी ने सही कहा है की बदलाव के इस अंधी दौड़ में भारत नकलची में सबका बाप बन गया है।