मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

रविवार, 21 जून 2015

रांची के पत्रकारों के मोबाइल में क्रांति दौड़ रही है........



2008 के आस – पास पहली बार सोशल साइट्स पर कदम रखा था.... एक आईटी कंपनी मे बतौर एसोसिएट कंटेन्ट क्रिएटर लैपटॉप ऑन करने के बटन को दबाने से मैंने आईटी के इस मकड़जाल को धीरे – धीरे सीखा था..... सबसे पहले ऑर्कुट फिर ब्लॉग फिर फेसबुक.... तीन साल तक फेसबुक पर अपडेट रहने के कई फायदे हुए.... लोगों से जान पहचान हुई और पत्रकारिता जगत में इंट्री भी इसी के माध्यम से हुई..... इसलिए आज के व्हाट्सअप तुरत फुरत के जमाने मे भी फेसबुक को दिल से जुदा करने का मन नहीं होता........ लेकिन अब व्हाट्सअप पर क्रांति दौड़ रही है।
हैं तो ये सब सूचना के माध्यम ही... और क्रांति का भी अनुभव कराते रहे हैं.... हाथ में मोबाइल हो और मास्को में रह रही मौसी से हाय हेलो हो रहा हो तो यह क्रांति ही हैं न.... लेकिन सूचना क्रांति के इन तमाम माध्यमों में सबसे आगे बढ़कर व्हाट्सअप ने रांची के पत्रकारिता जगत में इनदिनो नई क्रांति ला दी है...... जैसा की यह कहने का चलन बन चुका था कि सोशल मीडिया देश से भले ही जोड़ता हो लेकिन पड़ोस को तोड़ने का काम करता है लेकिन व्हाट्सअप ने इस मिथक को भी तोड़ा है..... इसके दो – दो बड़े उदाहरण रांची में पत्रकारों ने पेश की है....
कुछ महीने पहले की बात है.... राज्य के सबसे बड़े अस्पताल रिम्स में एक महिला पत्रकार से छेड़खानी की गई.... तो एक और पत्रकार की बुरी तरह पिटाई कर दी गई.... संयोग से दोनों अंग्रेजी दैनिक अखबार के पत्रकार थे जिसका हिन्दी अखबार और क्षेत्रीय न्यूज़ चैनल के पत्रकार से ज्यादा वास्ता नहीं होता क्यूंकी सबके टेस्ट मे बड़ा फर्क है..... फिर भी ये खबर सभी रांची के पत्रकारों तक पहुंची..... व्हाट्सअप पर बने ब्रेकिंग न्यूज़ नामक एक ग्रुप में इस मामले को गंभीरता से लेने की बात की गई.... धीरे – धीरे सभी एक्टिव हुए खासकर युवा पत्रकार.... एक एक कर सबका रिसपोन्स आने लगा.... रात के 2 बजे 30 से 40 पत्रकार रिम्स पहुंचे और वो हुआ जो कभी नहीं हुआ था। फिर आंदोलन की रणनीति आगे बनने लगी.... पत्रकार की एक जुटता से पुलिस पर दबाव बनाने मे सफलता मिली..... और अंततः वही हुआ जिसका सभी मांग करते थे.....
फिर अभी दो दिन पहले दैनिक समाचार पत्र के फोटोग्राफर पर ठेकेदारों और सरकारी चमचों ने जानलेवा हमला कर दिया और बेहोशी की हालत मे उसे बंधक बना लिया..... किसी साथी का मुझे कॉल आया कि मनोरंजन को बंधक बना लिया गया है.... मैंने व्हाट्सअप के ग्रुप में इसकी सूचना दी.... सभी ग्रुप मे सूचना जाते ही पत्रकार साथी जगह पर उसको ढूँढने पहुँच गए..... देखते ही देखते ये संख्या सैकड़ों में हो गई... आश्चर्य की बात यह थी कि किसी ने किसी को कॉल नहीं किया बल्कि व्हाट्सअप पर पढ़कर जो जहां था वहीं से उस जगह पर पहुंचा जहां मनोरंजन को रखा गया था..... मनोरंजन को छुड़ाया गया.... फिर व्हाट्सअप पर सीएम से मिलने की बात तय हुई....देखते ही देखते ये संख्या दुगुनी हो गई.... सीएम हाउस के बाहर खड़ी गाड़ी देखकर ये स्वीकारना मुश्किल था की अख़बार के पेज छोड़ने के समय में एक साथ इतने पत्रकार एकसाथ कहीं हो सकते हैं..... लेकिन ये हकीकत थी। हकीकत थी कि 200 पत्रकार मुख्यमंत्री आवास को घेरे हुए थे..... सीएम आश्वासन दिये... फिर प्लान बना उस एसएसपी के हिसाब करने का जो फोन नहीं उठाते..... 2 दिन लगातार उनके प्रेस कॉन्फ्रेंस के बहिस्कार ने आंदोलन को और बल दे दिया। पुलिस प्रशाशन के बीच यह चर्चा का विषय बन गया कि क्या पत्रकारों में इतनी एक जुटता है। आपको जानकार हैरानी होगी कि यह ऐसा आंदोलन था जिसमे कोई नेता नहीं था। ऑनलाइन ही छोटे बड़े सभी की बातों में डिस्कस हुआ रणनीति बनी फैसला हुआ । कहीं संस्थान द्वारा दी गई बैरियर की फलां स्ट्रिंगर है फलां रिपोर्टर है तो फलां बड़ा रिपोर्टर है और फ़ोटो ग्राफर है। लेकिन इसी आंदोलन के दौरान ही पता चला कि कई संस्था ने सोशल साइट्स पर लिखने के साथ साथ अपनी लड़ाई लड़ने पर रोक लगा रखी है। मतलब उन्हें बंधुआ मजदुर बना लिया गया है। कल जब मनोरंजन के मामले में ही एक दैनिक अख़बार के संपादक का साक्षात्कार कर रहा था तो उन्होंने बताया मीडिया में आंदोलन युवा वर्ग से ही संभव है। क्योंकि बढ़ती उम्र के साथ सब व्यवस्था में ढल जाते हैं। मतलब साफ़ था कि आप अपनी लड़ाई खुद लड़िये। अगर ऐसी ही सोच रही तो सामने वाला पत्रकार/फ़ोटो पत्रकार हमेशा पिटता रहेगा और हम कुछ लोग तख्तियां और काली पट्टी लगाकर विरोध करते रहेंगे। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि सत्ता और व्यवस्था जब आपका विरोधी हो जाये तो समझिये आपमें अभी जान बाँकी है। शायद इसी सोच के रांची के सैकड़ों युवा पत्रकार आंदोलन पर हैं और यह आंदोलन व्हाट्सअप के जरिये उनके दिमाग से होकर मोबाइल में दौड़ रही है।

रविवार, 7 जून 2015

पॉकेट/थैली/झोला


मॉल में या फिर किसी ब्रांडेड शो रूम में खरीदारी करने के बाद सामान घर लाने के लिए पॉकेट/थैली/झोला के लिए अलग से पैसे देने पड़ते हैं। मामूली सी थैली के लिए ग्राहक को 5 से 15 रुपये तक का भुगतान करना पड़ता है। थैलियों की कीमत से अधिक पैसे तो लिए ही जाते हैं साथ ही उस पर खुद के ब्रांड या फिर दुकान का एड भी दिया जाता है। मलतब जो कम्पनियाँ अपने ब्रांड का प्रोमोशन के लिए लाखों करोड़ों खर्च करती है वही कम्पनियाँ ग्राहक से पैसे लेकर अपने ब्रांड का प्रोमोशन कर रही है। जबकि होना यह चाहिए था कि यदि कम्पनियाँ थैली में अपने ब्रांड का प्रोमोशन कर रही हो तो उसे मुफ्त में दिया जाए या फिर उसकी कीमत कम होनी चाहिए। या नहीं तो उस पर कोई जागरूकता फ़ैलाने वाला विज्ञापन होना चाहिए था। जागो ग्राहक जागो। और अपनी बात उपभोक्ता फॉर्म तक पहुँचाओ।

फोटो मत छापियेगा नहीं तो फांसी लगा लेंगे।




02 मार्च को मैट्रिक की अंतिम लिखित परीक्षा थी। सब्जेक्ट था संस्कृत। यह एडिशनल सब्जेक्ट होता है। इसमें पास होना जरुरी नहीं लेकिन अधिक नम्बर आने से फुल मार्क्स में शायद जुड़ता है। सुबह - सुबह हम मीडिया वालों को कॉल आया की जैक अध्यक्ष संत अलोइस स्कूल में निरिक्षण करने जा रहे हैं। हम पहुंचे तो 2 छात्र को अध्यक्ष ने चोरी करते पकड़ा। एक चिट फेक रहा था तो एक गैस पेपर का पेज कॉपी में छुपाकर लिख रहा था। तभी बारिश होने की वजह से हम वहीँ कैंटीन में रुक गए। बारिश ख़त्म होते ही जैसे ही निकलना चाहा वही लड़का सामने आ गया। जिसे अध्यक्ष ने चोरी करते पकड़ा था। और कहा - भैया फोटो मत छापियेगा नहीं तो हम फांसी लगा लेंगे।

दरअसल आज हम इसे इसलिए लिख रहे हैं क्यूंकि कैराली स्कूल की एक छात्रा ने परीक्षा में चीटिंग करते पकड़े जाने पर आज सुसाइड कर ली है। फोटो में लिखा I QUIT उसी लड़की का लिखा है। इसके साथ 4 पन्नो का एक सुसाइडल नोट भी लिखकर घर वालों के लिए छोड़ा है। 11 वीं में पढ़ने वाली लड़की ने लिखा है वो कॉमर्स पढ़कर बिजनसमेन बनना चाहती है। लेकिन मम्मी पापा के डॉक्टर के रूप में उसे देखने की तमन्ना के चलते उसे साइंस पढ़ना पड़ रहा है। और शायद इसलिए आज उसे फिजिक्स सब्जेक्ट में चोरी करनी पड़ी। और भरे क्लास में उसे शर्मिंदा होना पड़ा। फिर वो वही कदम उठा ली जिसकी धमकी उस लड़के ने मुझे दी थी।

दोनों केस को मैं इसलिए जोड़ रहा हूँ क्युकी मैं बताना चाह रहा था कि बच्चों की सोच कैसे बदल रही है। पास होने के लिए पढाई करने से ज्यादा चोरी करते पकड़े जाने पर शर्मिंदगी से है। और यह भी बताना चाह रहा था कि बच्चों पर परिजन द्वारा जबरदस्ती कैसे खास फिल्ड और विषय का लोड थोपा जा रहा है। ठीक उसी तरह जैसा फिल्म 3 इडियट में फिल्माया गया है। बच्चा पैदा होते ही माँ - बाप तय कर लेते हैं कि ये डॉक्टर बनेगा या इंजिनियर। मजबूरन कैद में जीने वालों को I QUIT लिखकर आज़ाद होना पड़ता है।

ये VC जरा हटके है !


चमचमाती गाड़ी पर जब लाल- पीली बत्ती चढ़ जाये, आगे पीछे बॉडी गार्ड तन जाए और बीच में खड़ा व्यक्ति अपनी पहचान के लिए गले में पहचान पत्र टांग ले तो देखने में कैसा लगेगा। थोड़ा अजीब तो लगेगा न क्यूंकि गाड़ी पर पद लिखवाकर सायरन की आवाज़ में चलने वालों को अक्सर पहचान की जरुरत नहीं पड़ती। किसी समारोह में ऐसा कर ले तो चलता है लेकिन हर दिन आईकार्ड टांग कर ऑफिस आये अपने चेम्बर में भी उसी स्थिति में भी बैठे तो कौतुहल तो होगा ही। क्यूंकि हम अमेरिकी नहीं झारखंडी हैं।
दरअसल हम बात कर रहे हैं रांची युनिवेर्सिटी के कुलपति डॉ रमेश पाण्डेय के बारे में। अभी कुछ ही दिन पहले वीसी के पद पर विराजमान होने वाले रमेश पाण्डेय इनदिनो काफी चर्चा में हैं। वो अपने कर्मचारियों को समय पर आने का निर्देश नहीं दिए हैं बल्कि हर दिन सुबह आठ बजे खुद अकेले ऑफिस आ जा रहे हैं। पिछले कई सप्ताह से उनके समय से 2 घंटा पहले ऑफिस आने का सिलसिला जारी है। नतीज़तन अब सभी कर्मी 10 बजे तक ऑफिस पहुँच जा रहे हैं। विश्वविध्यालय परिसर का माहौल भी बदल गया है। कल तक विश्वविध्यालय की जो दीवारें पीकदान बनकर रह गयी थी वो आज फुल और गमलों से गुलजार है। खुद हर दिन गले में कुलपति का पहचान पत्र लगाकर आते हैं जिसमे रजिस्ट्रार का हस्ताक्षर होता है। ताकि हर कोई ऐसे ही आये। पाण्डेय जी चाहते हैं कि विश्वविध्यालय को कोर्पोरेट कल्चर में ढालें। लेकिन व्यवस्था को बदलना इतना आसान नहीं क्यूंकि अक्सर व्यवस्था बदलने वाले बदल दिए जाते हैं।

उस ज़माने का कैटरर था बसंतराय तालाब।

बसन्तराय तालाब


नीचे जो तस्वीर है वो मेरे गाँव का बसन्तराय तालाब है। दादा जी बताते थे कि पहले जब गाँव में किसी के घर में शादी लगती थी और बर्तन की जरुरत पड़ती थी तो लोग इसी तालाब से बर्तन लेते थे। लोगों को जितने बर्तन की जरुरत होती थी उसकी एक लिस्ट पान और सुपारी के साथ तालाब के किनारे शाम को रख दिया जाता था और सुबह तालाब के किनारे पानी में बर्तन आ जाता था।शर्त सिर्फ इतनी भर होती थी कि जितना बर्तन ले जाया जा रहा है उसे गिनती के साथ लौटा दिया जाये। लेकिन समय के साथ जैसे - जैसे लोगों का इमान ख़राब होते गया और जो बर्तन जितना लाया उतना लौटाया नहीं तो फिर धीरे - धीरे तालाब ने बर्तन सप्लाय बंद कर दिया। इस तालाब की एक खास बात और है कि इसमें सालों भर गर्म पानी रहता है। अप्रैल महीने में इस तालाब की महत्ता और बढ़ जाती है। 14 अप्रैल को इस जगह पर विशाल मेला भी लगता है। ऐसा नहीं है कि बर्तन निकलने और अन्य बाते सिर्फ एक कहावत है बल्कि एक विदेशी जब संथाल परगना के दौरे से लौटकर किताब लिखा था तो उसमे भी इस बात का जिक्र था।

समय के साथ सबकुछ बदल गया। अब किसी बेटी के शादी में यह तालाब बर्तन नहीं देता। लेकिन इसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर आज भी यहाँ मेला लगता है। और गोड्डा विधानसभा में बसंत राय की भूमिका आज भी उतनी ही है। क्यूंकि यही के एक मुस्त वोट से नेता विधानसभा तक पहुँचते है। लेकिन बसन्तराय के इस एतिहासिक तालाब की फ़िक्र किसी को नहीं शायद इसलिए 52 बीघा का तालाब अतिक्रमण का शिकार होते होते चंद बीघा में सिमट गया है।

नाबालिक लड़की की शादी में बज रहा था मोर अठरह साल होय गैलख रे...... सिर्फ ललकी ने सुना इस गीत को.....

ललकी

ई ललकी है। फुटानी हटिया से खरीद के साहू जी इसको लाये थे। बेटा के बिहाह में जुटे 500 लोगों का पेटपुजा इसी से करवाने वाले थे। आजे बेटा का बिहाह था। एक ओर साहू जी के लैका को हरदी लग रही थी तो दूसरी ओर ललकी अपनी आखरी घड़ी का बस इंतेज़ार कर रही थी। ललकी सोच रही थी कि अभी दूल्हा को हल्दी लग रही है कुछ देर बाद मेरी चमड़ी छिल कर मेरे ऊपर भी लगेगी। ललकी अगले पैर से धरती चीरते हुए सोच रही थी। दुबड़ी खा रही थी। और जून की भरी दुपहरी में मई मई बोल रही थी। लेकिन डीजे के तेज़ नगपुरिया संगीत में ललकी की आवाज़ कोई सुन नहीं पा रहा था। ललकी तब थोड़ी उदास हो गई। काहे की डीजे में बज रहा था मोर अठरह साल होय गैलख रे.... ओ बाबा.... ओ काका मोर शादी करा दे......

लेकिन तभी अचानक से डीजे बंद हो गया। साहू जी के द्वार पर 2-3 गाडी लग गई। पुलिस और लोगन के देख घर वाले सकपका गए। मंडप में बैठे साहू जी के लैका और होये वाली दुल्हन से सब पुछताक्ष करने लगे। बाते बाते में पता चला लड़की अभी सयान नहीं हुई है। डीजी में जे गाना बज़ रहा था उतना उमर नै हुआ है। हरदी और मेहँदी लगल दुल्हन को आयोग और पुलिस ले गई। शादी के बाद जैसे बिदाई के समय लड़की रोती है ठीक उसका उल्टा लड़का रोने लगा। सब ढाढस बांध रहा था चुप हो जा सब ठीक हो जायेगा। शादी के इस रौनक वाले घर में पसरे मातम के बीच फिर मई मई की आवाज़ ललकी ने लगाई। ललकी अब थोड़ा - थोड़ा मुस्कुरा रही थी। घर वाले को दांत दिखा दिखा कर दुबड़ी खा रही थी।

दरअसल कुछ देर पहले तक जो ललकी उदास थी वो अब इसलिए खुश थी क्योंकि जिस शादी में वो हलाल होने आई थी उसकी दुल्हन को ही पुलिस ले गई। मतलब साहू जी अपने बेटा का बिहाह एक नाबालिक लड़की से करवा रहे थे जो पकड़े गए लेकिन ललकी को डीजे के धुन पर पहले से ही शक हो गया था। इसलिए वो तभीए मेमा रही थी।

हाँ मैं स्ट्रिंगर हूँ !


कुछ दिन पहले की बात है। रांची में ट्रैफिक एसपी खुद से वाहन चेकिंग कर रहे थे। हम भी खबर करने पहुंचे थे। उसी दौरान 2 लड़के मेरे पास आये बोले भैया हेलमेट नहीं था इसलिए पकड़ा गए हैं छुड़वा दीजिये न। मैंने अपना हेलमेट उसे दे दिया। फिर भी बात नहीं बनी लेकिन बाद में पता चला ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं था इसलिए बात नहीं बनी थी। लेकिन इतना जरूर हुआ की फाइन सिर्फ डी एल नहीं होने का ही लगा। खबर के बाद मैं ऑफिस चला आया।
करीब एक महीने के बाद मेरे फेसबुक पर एक मैसेज आया। मैं उसे पहचान नहीं पाया। लेकिन उसने मुझे बताया कि मैं वही हूँ जिसकी आपने मदद की थी। मैंने पूछा कैसे खोज लिया तो उसने कहा बस खोज लिए। बात - बात में पता चला की वो पत्रकारिता का छात्र है। फिर बीच बीच में ऑनलाइन बातें होती रही। उसने मुझसे पूछा की रिपोर्टर हैं न ? चुकी वो पत्रकारिता का छात्र था इसलिए वो समझना चाह रहा था कि आप स्ट्रिंगर हैं या रिपोर्टर। मैंने उसे बताया की स्ट्रिंगर हूँ। उसने ओके लिखकर संवाद को बंद कर दिया।
फिर कुछ दिनों के बाद उसने मुझे जी न्यूज़ पर लाइव देखा। और फोटो सहित बधाई लिखकर भेजा। उसके बधाई सन्देश में ये सवाल छुपा हुआ था कि आप रिपोर्टर बन गए क्या ? लेकिन वो ये सवाल पूछा नहीं।
अभी हाल ही में उसका एक मैसेज आया। उसका सवाल था कि क्या कोई लड़का सीधे रिपोर्टर नहीं बन सकता ? पहले स्ट्रिंगर बनकर अपना कैमरा से काम करना ही होगा ? मैं सोच में पड़ गया कि क्या जवाब दूँ। क्योंकि असल बात बता देता तो पत्रकारिता में कदम रख रहे इस लड़के की सोचने और काम करने की क्षमता में बदलाव आ जाता। मैंने कहा ऐसा नहीं है। कोई ऑफिस में चिट्टी छांटते छांटते रवीश कुमार बन जाता है तो कोई सीधे स्टार एंकर रिपोर्टर भी बन जाता है। शुरुवात में थोड़ी दिक्कत और तकलीफ होती है लेकिन सब सूखे पत्तों की तरह झड़ जाता है। उसने फिर पूछा की तो आपका इतने दिनों में कुछ क्यों नहीं हुआ ? मेरे पास जवाब नहीं था। इसलिए रिप्लाय बॉक्स खाली रहा।
कहीं से इंटर्नशीप करके लौटने के बाद उसने कहा मैं आपसे पढ़ना चाहता हूँ। आप जहाँ बुलाइये आ जाऊंगा। आपके जैसा रिपोर्टर बनना चाहता है। सुनकर अच्छा तो लगा क्योंकि पत्रकारिता करते हुए मेरे लिए इससे बड़ा कॉम्प्लीमेंट नहीं हो सकता था। लेकिन मैंने उससे कहा मेरे जैसा नहीं मुझसे अच्छा बनो। और खूब नाम कमाओ। क्योंकि स्ट्रिंगर और रिपोर्टर में फर्क तो तुम समझ ही लिए हो। मैं अभी तक स्ट्रिंगर ही हूँ। स्ट्रिंगर के बारे में एक संपादक ने कहा है - स्ट्रिंगर एक दलित के समान होता है। जिसपर रहम तो हर कोई जताता है लेकिन मदद कोई नहीं करता।