मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

सोमवार, 13 जून 2011

बेटा-बेटी फ़ैल, बाप का सर ऊँचा !


संपादक जी क़ानूनी पेचड़ें में पड़ें हैं. इसलिए आज फिर से उनकी कुर्सी पर तो नहीं लेकिन बगल में टेबल लगा कर लिख रहा हूँ। अच्छा लगे तो ताली दीजियेगा लेकिन बुरा लगे तो गाली नहीं दीजियेगा

का कहें गजबे हो गया उहे हुआ जो नहीं होना चाहिए हर दिन झारखण्ड में अनिष्ट हो रहा है अभिये दू दिन पहिले इंटर का रिजल्ट आया, आधा से अधिक लैकन लोग लुढ़क गया हर ओर त्राहि-त्राहि मचा हुआ है इन्टरे ऐसा स्टेज होता है जहाँ से लैकन लोग भविष्य का निर्धारण करता है अभी भविष्य के बारे में सोच कर पहीला कदम बढैबे किया था कि धड़ाम हो गया
वैसे ख़राब रिजल्ट में भी झारखण्ड कि जनता के लिये के एगो खुशखबरी छुपल है काहे कि सभी के साथ-साथ शिक्षा मंत्री का बेटा-बेटी प्रभात और पूनम भी फ़ैल हुआ है इससे मंत्री जी कि जनता में बड़ी अच्छी छवि बनी है लोग तो अब यहाँ तक कहने लगे हैं कि चलो कम से कम शिक्षा मंत्री तो प्रदीप और सुदेश भईया जैसा तो नहीं निकले अब तो हम कह सकते हैं कि झारखण्ड अब जाग रहा है, यहाँ बैमानी नहीं हो रहा हैमंत्री संत्री का भी बेटा का फ़ैल हो जाना झारखण्ड के लिये शुभ संकेत ही तो है तो दूसरी ओर प्रभात और पूनम ने तो फ़ैल हो कर अपने बाप का सर ऊँचा कर दिया है वैसे पास और फ़ैल अलग चीज़ है मैं तो कहता हूँ खुद बाप भी परीक्षा देता तो पास नहीं हो पाता मंत्री जी भले ही एक मंत्री के रूप में सफल हुए हैं लेकिन एक बाप के रूप में बिलकुल असफल हुए हैं आप खुद ही सोच लीजिये पूरे प्रदेश को शिक्षा का पाठ पढ़ाने वाले का बेटा-बेटी ही फ़ैल हो जाएँ तो इसे क्या कहेंगे शायद इसी को कहते हैं चिराग तले अँधेरा वैसे चिराग में भी उतना दम नहीं है, उतना तेल नहीं है। अब जैसा चिराग रहेगा वैसा ही प्रकाश निकलेगा बेटा का नाम प्रभात रख देने से थोड़े न सूरज जैसा चमकेगा, आख़िरकार तो बाबूजी के रंग पर ही न जायेगा।
वैसे ख़राब रिजल्ट को मंत्री जी भले ही अपनी उपलब्धि बता रहे हों लेकिन इन सब के पीछे तो हाथ लक्ष्मी चाची का ही है जब से जैक आयी है सबको हिला कर रख दी है पहिले कर्मचारियों से जगड़ा, नया - नया नियम अब तो सबसे ज्यादा नंबर लाने वाले पांच छात्रों का कॉपी भी स्कैन करके वेबसाईट परडलवाती है इतनी पर्दार्सिता कि खुद मंत्री जी का घर भी इससे नहीं बच पाया
इस ख़राब रिजल्ट से वैसे छात्र बड़े अख्रोसित हैं जिन्होंने कभी सरस्वती के सामने हाथ नहीं जोड़ा एक घंटे से अधिक किताबों पर नज़रें नहीं टिकाई इनका समय तो बस दिन भर बाइक से सरपट दौड़ लगाने और रात भर संचार क्रांति का दुरूपयोग करते हुए लड़कियों से बातें करने में ही गुज़र गया कब दो साल बीत गया इन्हें पता ही नहीं चल पाया अभी तक तो ठीक से मेट्रिक में आये अच्छे परिणामों का मज़ा भी नहीं ले पाए थे कि एक विपदा सामने गई अब करते भी क्या बाप के पैसों का हिसाब और समाज के लोगों को जवाब जो देना था सो लगे फाँसी पर झूलने, जहर खाने और जैक परिसर में हो हल्ला करने ताकि किसी तरह तो इज्ज़त बच जाये काश सब पहिले सोच लेता तो आज ऐसन नौबत नहीं आता
फ़िलहाल तो चलते हैं फिर मिलते हैं नयी बातें के साथ..... जोहार !!
सन्नी शारद !

शुक्रवार, 10 जून 2011

जींस और टॉप को करें बाय, सलवार कमीज़ को अपनाएं !


भारत में लड़कियों का सबसे सलीका वाला पहनावा माने जाने वाला सलवार कमीज़ विलुप्ति के कगार पर है पाश्चात्य संस्कृतियों ने इसे पूरी तरह अपनी जींस और टॉप कि जंजीरों में जकड़ लिया है रांची जैसे छोटे शहरों में यदि आप निकलें तो हर ओर कमर से नीचे सरकती जींस और नाभि से ऊपर चढ़ते टॉप का दर्शन हो सकता है लेकिन सलवार कमीज़ तो आपको खोजने से भी नहीं मिलेगी मेरी खुद कि रेडिमेड कि दुकान है पिछले दो साल से एक भी सलावार कमीज़ नहीं बिका मैं तो सुक्रगुजर हूँ बाबा का जिन्होंने सही समय में सलवार कमीज़ को सुर्ख़ियों में लाकर बाघ कि तरह विलुप्त हो रहे इस सलवार कमीज़ को फिर से नयी शुरुवात करने का मौका दे दिया है

वैसे लोग बाबा के भ्रस्टाचार के मुद्दे पर ध्यान दे रहे हों या नहीं लेकिन बाबा के सलवार कमीज़ पर हर किसी कि नज़र है। मुझे तो लगता है अब लड़कियां शान से सलवार कमीज़ पहिनेगी और कहेगी कि यही है बाबा कि राईट च्वाइस। एक समय था जब बाबा कहा करते थे कि कद्दू (लौकी ) खाओ, बाबा कि सबने सुनी और हर कोई खाने लगे। कद्दू कि बिक्री इतनी बढ़ गई कि दुकानदार से लेकर खरीदार तक अब कद्दू को कद्दू नहीं बल्कि बाबा रामदेव कहता है। इसलिए मुझे तो डर है कि कहीं सलवार कमीज़ का भी नाम बदलकर लोग बाबा रामदेव न रख दें. जब ऐसा हो जायेगा तो स्थितियां कैसी-कैसी होंगी.....राह चलते यदि लड़कियां सलवार कमीज़ में दिखी तो लोग कहेंगे वो देखो बाबा रामदेव पहन कर आ रही है. दुकान में लोग जायेंगे तो कहेंगे भईया सस्ता वाला बाबा रामदेव देना नौकरानी को देना है. भईया सूती वाला रामदेव देना जिसके साथ आराम से सो सकूँ. लड़कियां एक दुसरे को बोलेगी "क्या बात है तेरा रामदेव तो बड़ा मस्त दिख रहा है" "मुझे तो स्लीवलेस रामदेव बहुत अच्छे लगते हैं."
हमारे फ़िल्मी दुनिया वाले भी सलवार कमीज़ के पीछे हमेशा से ही लगे रहते हैं. पिछले दिनों बोजपुरी में एक गाना आया था "बड़ा जालीदार बा ताहर कुर्ती(सलवार कमीज़)" अब यदि उस गाने को रिमिक्स कर दिया जाये तो वो कुछ इस प्रकार हो जायेगा... "बड़ा जालीदार बा ताहर रामदेव"
मैंने अकबर इलाहाबादी कि एक लाइन किताब में पढ़ी थी "जब तोप मुकाबिल हो तो अख़बार निकालो" उसी को मेरे गुरु जी ने रिमिक्स किया और कहा "जब सरकार मुकाबिल हो तो सलवार निकालो" यानि कि अनशन और धरने के साथ-सहत अब सलवार भी विरोध का एक सिम्बल हो गया. तो बस सलवार निकलते रहिये और सरकार का विरोध करते रहिये.
फ़िलहाल जोहार फिर मिलते हैं......
सन्नी शारद.

संपादक जी बिना बताये छुट्टी पर हैं।


आज इडीयट न्यूज़ के संपादक जी बिना बताये छुट्टी पर हैं। बहुत फ़ोन घुमाया, एसएम्एस किया लेकिन कोई जवाब नहीं आया। मुझे लग रहा है एक सप्ताह बीत जाने के बाद भी मेहनताना कि बात नहीं हो पाई शायद इसलिए नाराज़ हो कर दूर चले गए हैं। लेकिन आशंका यह भी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी चौक - चौराहे पर अनशन या धरने पर बैठे होंगे। इसलिए जवाब नहीं दे पा रहे होंगे। क्यूंकि पिछले दो चार दिनों से यह एक नया ट्रेंड बन गया है। पिछले तीन दिनों से जो कोई भी फ़ोन कर रहा है बस एक ही बात पूछ रहा है "और बाबा के बारे में क्या ख्याल है?" "तुम उनके समर्थन में हो कि नहीं?" "सरकर को ऐसा नहीं करना चाहिए था " ये वो नौ सत्रह फलाना ढीकाना ।

भईया मेरा तो बाबा के बारे में हमेशा नेक ख्याल ही रहता है। ऐसी बात थोड़े ही है कि बाबा सलवार कमीज पहन लिये तो मेरा ख्याल बदल जायेगा। और ऐसी भी बात नहीं है कि सरकार बाबा के पंडाल में आंशु गैस छोड़े तभी ही आंशु आये, भईया मुझे तो आंशु तभी से आ रहें हैं जब से ये महंगाई मुह बाये खड़ी है।
अपन इ बात समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकार महंगाई बड़ा कर जब आम लोगों को भूखा मारने का पूरा बदोबस्त करिए लिया है तो हम भूख हड़ताल पर बैठने के लिये इतना जोर क्यूँ दे रहे हैं। शायद हम सब इ बात भूल जाते हैं कि इस देश में भूखे मरने कि पूरी छुट है लेकिन भूख हड़ताल पर बैठने कि नहीं।
लेकिन दूसरी ओर यह भी बात है कि आज ऐसे-ऐसे लोग बाबा का साथ देने कि बात कर रहे हैं जो अगर न होते तो शायद उन्हें अनशन पर बैठना ही न पड़ता। वैसे कुल मिलकर कहा जाये तो बात अब काले धन और भ्रष्टाचार कि नहीं रह गयी है बल्कि इस मुद्दे का फिर से पूरी तरह राजनीतिकरण कर दिया गया है। बापू ने अपने जीवन काल में वैसी नृत्य नहीं देख पाए होंगे जो उन्होंने अपनी समाधी स्थल पर देखी। लेकिन अपुन इडीयट परिवार तो बापू का बहुत बड़ा फैन है। न बुरा देखना, न बुरा सुनना, न बुरा बोलना । इसलिए इन समझदारों से थोड़ी दुरी बना कर ही रहता हूँ। वैसे सम्पादकीय लिखते-लिखते यह खबर आ गयी है कि बाबा ने अपने समर्थकों को अनशन तोड़ देने का आदेश दे दिया है। और सरकार से बातचीत को भी तैयार हो गए हैं। लगता है अब संपादक जी आ सकते हैं। चलिए इंतज़ार करते हैं। वैसे जब इधर उधर से चुरा कर लिखिए दिए हैं तो पोस्ट करिए देते हैं। और हाँ जाते-जाते एगो बात बता देते हैं अब देखिएगा फ़ोन पर और फेसबुक पर सब इहे सवाल पूछेगा कि बाबा अनशन तोड़ने क लिये कह दिए और साकार से बात को भी तैयार हो गए हैं तो क्या समझा जाये बाबा झुक गए और लोगों कि बीच उनकी साख कम हो जाएगी। और केंद्र सरकार अपने मकशाद में कामयाब हो गयी ?
जोहार
सन्नी शारद !

झारखंडी रत्न !


कद काठी, पैर में ब्लू रंग का हवाई चप्पल, चहेरे पर हल्की-हल्की पकी हुई दाड़ी, शरीर को ढकने के लिये बस साधारण सा फुलपैंट और हरे रंग का हाफ शर्ट, बीच में तीन चार बार मोबाईल कि घंटी बजी तो उससे यही सुर निकला सहिया रे सहिया...... उनकी निगाहें कंप्यूटर पर जमी थी, एक हाथ माउस पर तो दुसरे से लगातार सिगरेट कि कश के साथ मुझे से बात ! बात भी ऐसी कि कोई भी सुन कर मंत्रमुक्ध हो जाये। जब भ्रस्टाचार पर बोले तो मेरी कुर्सी हिल गयी, जब राजनीति पर बोले तो ऐसा लगा जैसे सब ऊपर का करामत है, जब नक्सलियों पर बोले तो ऐसा एहसास हुआ मानो मैं भी एक नक्सली ही हूँ। जब बात बदलाव कि हुई तो जम कर बरसे। धोनी का नाम सुन कर भड़क गए तो रामदेव और अन्ना को एक नंबर का नौटंकीबाज बता डाला। तो आइये आज इडीयट न्यूज़ पर एक ऐसे शख्सियत से आपकी मुलाकात करवाते हैं जिन्होंने पिछले तीन दशकों से रंगकर्म, कविता-कहानी, आलोचना, पत्रकारिता एवं डाक्यूमेंट्री से गहरी यारी/अभिव्यक्ति के सभी माध्यमों -प्रिंट, ऑडियो, विजुअल, ग्राफिक्स, परफॉरमेंस और वेब के साथ जम कर साझेदारी/झारखण्ड एवं राजस्थान के आदिवासी जीवन, समाज, भाषा-संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण पर थियेटर, फिल्म और साहित्यिक माध्यमों में विशेष कार्य में अपनी एक अलग पहचान बनायीं है ! तीन घंटो कि लम्बी बातचीत को स्मृति के आधार पर लिख रहा हूँ और हाँ बताते चलूँ कि ये मेरे जीवन का पहला INTERVIEW है। मैं कई दिनों से कसम कस में था कि इडीयट न्यूज़ में पहला INTERVIEW किसका लूँ। बहुत सोचने के बाद मैंने "जोहार सहिया" के संपादक "अश्वनी कुमार पंकज" जी से अपनी इच्छा जताई तो उन्होंने सहजता से इसे स्वीकार किया। तो पेश है पंकज साहब से सन्नी शारद कि खास बातचीत :----


सन्नी शारद: सबसे पहले आपको "नमस्कार" !
के पंकज: जी नमस्कार !

शारद: अपने बारे में कुछ बताइए ?
पंकज: मैं अश्वनी कुमार पंकज. मेरा जन्म सन १९६४ में हुआ उसी साल कमयुनिस्ट पार्टी का गठन हुआ और नेहरु कि भी हत्या हुई। मैं मूलतः बिहार औरंगाबाद का रहने वाला हूँ। अपने पिता डॉ एम् एस अवधेश के सात संतानों में से एक हूँ। पिता जी एचइसी में थे इसलिए झारखण्ड से नाता जुड़ गया सो अभी तक बना हुआ है। पिछले तीस सालों से रंगकर्म से जुड़ा हुआ हूँ। फिलहाल झारखण्ड के आदिवासी भाषाओं तथा उनके इतिहास पर सक्रिय/ लोकप्रिय मासिक नागपुरी पत्रिका जोहार सहियाऔर पाक्षिक बहुभाषी अखबारजोहार दिसुम खबरका संपादन-प्रकाशन कर रहा हूँ।

शारद: तीस साल से रंगकर्म से जुड़े हुए हैं इतना लम्बा समय. आखिर इसकी प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
पंकज: कहीं से भी नहीं। बाबूजी पढने पर जोर देते रहे लेकिन मैं बस इस ओर ही आता चला गया।

शारद: आपको नहीं लगता कि रंगकर्म का महत्व कम होता जा रहा है और लोगों का रुझान फिल्मों कि ओर बढता जा रहा है?
पंकज: बिलकुल नहीं ! रंगकर्म का महत्व कभी कम हो ही नहीं सकता। फिल्मों में परदे पर जो दिखताहै वो हकीकत से बड़ा होता है, टीवी पर जो दिखता है वो हकीकत से छोटा होता है, लेकिन थियटर में जो देखता है वो हकीकत होता है और वो जीवंत होता है। इसमें हमेशा सच्चाई दिखता है। मैं तो बस इसे ही जीता हूँ और झारखण्ड के लगभग हर जिला और गाँव में जाकर थियटर कर चुका हूँ।

शारद: क्या आपने कभी राष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है?
पंकज: (गुस्से से उठ खड़े होते हैं) राष्ट्रीय स्तर तुम किसे बोलते हो? तुम देल्ही में जा कर कोई काम करो तो वो राष्ट्रीय स्तर का हो जाता है? क्या देल्ही के मजदुर राष्ट्रीय स्तर के हैं और यहाँ के मजदुर जिला स्तर के हैं?

शारद: आपके पास इतने अवार्ड पड़े हुए हैं। सबसे बड़ा अवार्ड आपको कौन सा मिला है?
पंकज: मुझे कोई अवार्ड नहीं मिला है। और न ही मैं कभी कोई अवार्ड लेने जाता हूँ। ये सब तो मेरे घर के पते पर भेज दिया गया है। मुझे तो थू है वैसे अवार्ड पर जिसे लेने के पहले १०-१० पन्ने का फॉर्म भरना पड़े।

शारद : यदि सचमुच में थियटर इतना प्रभावकारी माद्यम है तो फिर सरकार (झारखण्ड+केंद्र) इसको बढावा देने का प्रयाश क्यूँ नहीं करती है ?
पंकज: क्यूंकि इसमें हकीकत दिखता है। सच्चाई दिखता है। सरकार इसको कैसे बढावा देगी सरकार तो उसे बढावा देगी जो लिपा पोता हुआ हो। हालाँकि सरकार ने इसके लिये कई संस्थान भी खोलें लेकिन सबके सब मृत हो गए हैं। तुम देश कि सबसे बड़ी संस्थान नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा (NSD) को ही ले लो। मान लो हर वर्ष वहाँ से बीस-पच्चीस छात्र निकलते हैं तो इस हिसाब से यदि सन २००० से भी जोड़ा जाये तो २००-२५० होते हैं आखिर ये सब कहाँ जाते हैं। तीन सालों तक सरकार इन्हें दामाद कि तरह रख कर देश का पैसा इन सबों को पढ़ाने पर खर्च करती है और ये सब फ़िल्मी दुनिया में चले जाते हैं। फिल्म वाले के लिये FTI है।

शारद: झारखण्ड कि राजनीति के बारे में आपका क्या ख्याल है ?
पंकज: झारखण्ड कि राजनीति दिक्कू के हाथ में है। भले ही दिखावे के लिये मुख्यमंत्री आदिवासी हो।

शारद: लेकिन यहाँ जितने भी बड़े घोटाले हुए उसमे आदिवासियों का ही हाथ है और था जैसे मधु कोड़ा ?
पंकज: मैंने कहा तो ये सिर्फ पोपटे हैं। असली खिलाड़ी तो परदे के पीछे है। तुम सोच सकते हो कि मधु कोड़ा पर ४००० करोड़ इलज़ाम लगा है तो जो असली खिलाड़ी है वो कितने का घोटाला किया होगा।

शारद: झारखण्ड का भविष्य कैसा होगा?
पंकज: बहुत बुरा होने वाला है। लोग जब तक सह रहे हैं तब तक। वो दिन दूर नहीं जब नक्सली भाइयों कि तरह नहीं बल्कि बीच सड़क पर लोग सत्ता में बैठे लोगों को पटक-पटक कर मार देंगे।

शारद: अभी हाल ही में अतिक्रमण पर इतना बवाल हुआ आप इसे किस नज़र से देखते हैं?
पंकज: जो हुआ बुरा हुआ। लेकिन हाँ लोग जब हल्ला किये तो तुरंत अद्यादेश आ गया और वहीँ दूसरी ओर विस्थापन के लिये आज तक सरकार कुछ क्यूँ नहीं कर पाई ? अतिक्रमण पर सब हल्ला किये मीडिया भी खूब फोटो छापते रहा। तुम्हे पता है मीडिया में कितना अतिक्रमण है? कितने लोग झारखण्ड के हैं मीडिया में? सब बाहर से आये हैं। इसलिए इन अतिक्रमणकारियों का साथ दे रहे थे।

शारद: भ्रस्टाचार सिस्टम का एक अंग बन गया है। आपको क्या लगता है अब यह ख़त्म हो पायेगा ?
पंकज: ख़त्म उसी शर्त पर होगा जब तुम इससे अलग होगे। जब खुद से बदलाव लाने कि कोशिस करोगे। तुम जब शादी करोगे तो दहेज़ लोगे तो क्या यह भ्रस्टाचार नहीं है। तुम यदि सचमुच बदलाव चाहते हो तो खुद से शुरू करो न. अंतरजातीय विवाह करो और जाती के बंधन को तोड़ दो. अपनी शादी में दहेज़ मत लो . आज से प्रण ले लो कि कोई भी ऐसी शादी में मेहमान बनकर भी नहीं जायेंगे जिस शादी में दहेज़ लेन देन हुआ हो. पहले तुम बदलो तभी समाज और देश बदलेगा. ऐसे ही फेसबुक पर बैठ कर चिल्लाने से कुछ नहीं होगा !

शारद: आपको फेसबुक अच्छा नहीं लगता क्या?
पंकज: बिलकुल नहीं सब बकवास करते हैं यहाँ। सभी अपनी विचार थोपने में लगे रहते हैं। कभी किसी ने ये जानकारी दी है कि वो जिस जगह का है उसका चौहद्दी क्या है, उसकी खासियत क्या है। बस सब अपनी राग अलापने में लगे हुए हिं। इसलिए मैंने आज तक अपना एक भी ब्लॉग नहीं बनाया है।

शारद: फेसबुक आपको बुरा लगता है फिर भी आप वहाँ हैं ?
पंकज: बस समय कि मांग है। मैं कुछ ही दिन पहले इससे जुड़ा हूँ।

शारद: वैसे इन्टरनेट कि दुनिया पर जब भी मैं बैठता हूँ तो आपको ऑनलाइन पता हूँ। आखिर इतना गहरा लगाव क्यूँ और कैसे ?
पंकज: मैं इन्टरनेट से १९९३ से जुड़ा हुआ हूँ उस समय एक भी हिंदी कि वेबसाईट नहीं थी। जब वेब दुनिया पहली हिंदी कि साईट आयी तो मैं बैचेन हो गया कि कैसे मैं अपना साईट लाउं, बहुत लोगों से मिला लेकिन किसी ने मदद नहीं कि आखिर कर खुद से एक वेबसाईट बना ली। अब मेरी कई वेबसाईट है और मैं दो दर्ज़न से भी ज्यादा अडवांस वेब साईट बना चुका हूँ। कंप्यूटर का आज तक क्लास नहीं किया फिर भी गूगल से सर्च कर कर के सभी चीज़ सीखते चले गए। मेरी यही इच्छा है कि झारखण्ड के लिये के ऐसा वेब साईट बनायें जो झारखण्ड का गूगल हो? ओर एक ऐसी वेबसाईट बनाना चाहते हैं जो हिंदी अंग्रेजी के अलावा झारखण्ड के नौ भाषावों में हो।

शारद: जब मैंने बदलाव कि बात कि तो आपने कहा कि खुद से करना चाहिए तो आपने खुद में क्या - क्या बदलाव किया है?
पंकज: मैंने वंदना टेटे से शादी करके जाती के बंधन को तोडा है। मैं आज तक वैसी शादी में नहीं गया जिसमे दहेज़ का लेन देन हुआ हो। आज तक मैंने चार चक्का गाड़ी नहीं ली है।

शारद: झारखण्ड में नक्सल एक भयानक समस्या है इससे कैसे निजात पाया जा सकता है ?
पंकज: मुझे नहीं लगता कि यह एक भयानक समस्या है। इससे अधिक समस्या तो हमारे वैवास्था में हैं। यदि तुझे यह एक समस्या लग भी रहा है तो इसे जन्म किसने दिया है ? जब तुम्हारे हक़ को कोई छिनेगा, तेरे सामने तेरी बहन का कोई रेप करेगा तो तुम क्या करोगे ? अगर इस स्थिति में लोग वैवास्था का विरोध करते हैं तो मैं उसे नक्सली नहीं मानता।

शारद: आपने वैवास्था का विरोध करने कि बात कि तो मैं पूछना चाहूँगा कि इस स्थिति में बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के बारे में आपका क्या ख्याल है?
पंकज: दोनों एक नंबर के नौटंकीवाज़ हैं। बाबा रामदेव अपनी दुकान चलाना चाहता है तो अन्ना हजारे कोंग्रेष का एजेंट है। बाबा रामदेव जब काले धन और भ्रस्टाचार के मुद्दे को ले कर सामने आये तो अन्ना को कोंग्रेष एक एजेंट बना कर मैंदान में उतार दिया।

शारद: अच्छा जाते - जाते एक सवाल। पूरी दुनिया को जीत कर अपना माही "महेंद्र सिंह धोनी" घर आया है। आपको क्या कहना है?
पंकज: क्या खाक पूरी दुनिया जीत कर आया है तुमको पता है कितने देश खेलती है क्रिकेट ? धोनी २१ वे सदी में कुछ दुकानदारों का बनाया गया महज एक प्रोडक्ट है। अमेरिका क्रिकेट नहीं खेलता, चाइना क्रिकेट नहीं खेलता। लेकिन हम सब अंग्रेजों के खेल में फंस कर बस क्रिकेट में फंसे हुए हैं। हमारा रास्ट्रीय खेल क्रिकेट नहीं हॉकी है। क्रिकेट सफ़ेद पोश का खेल है, जबकि हॉकी मिट्टी का खेल है। मुझे शर्म आती है वैसे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति पर जो नेशनल गेम में नहीं आती है और क्रिकेट में चली जाती है। क्या नेशनल गेम से भी देश के लिये कोई बड़ा गेम होगा। झारखण्ड में आखिर केंद्र से कोई क्यूँ नहीं आया? क्या इस नेशनल गेम से ज्यादा जरुरी प्रधानमंत्री का हवाई अड्डे का उद्घाटन में जाना जरुरी था ? क्या इस नेशनल गेम्स से ज्यादा जरुरी राष्ट्रपति का डाक टिकट के संग्रालय का उद्घाटन में जाना जरुरी था? २६ राज्यों के खिलाड़ी अपने दम पर यहाँ तक आये थे क्या उन्हें आकर सम्मान नहीं कर सकते थे?

शारद: आप से बातें करके बहुत अच्छा लगा। अपना बेशकीमती समय देने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद!
पंकज: जी धन्यवाद!

मंगलवार, 1 मार्च 2011

कितना सफल रहा राष्ट्रीय खेल ?


३४वे राष्ट्रीय खेल का मसाल अब बुझ चुका है। लेकिन राष्ट्रीय खेल का भब्य और सफल आयोजन ने प्रदेश के हरेक लोगों के दिल में जो आशा कि लौ जलाई है शायद वो अब बुझ नहीं पायेगी। झारखण्ड इस खेल कि मेजबानी कर रहा था। २८ राज्य और केंद्र शासित प्रेदश के लगभग २० हज़ार से भी अधिक खिलाड़ी इस बात के साक्षी बने के झारखण्ड से अच्छा मेहमान नवाजी और कोई नहीं कर सकता। हालाँकि कुछ उठापठक भी हुए लेकिन कहते हैं जहाँ प्यार होता है वहीँ तकरार भी होता है।
अब तो हर किसी के जुबान पर यही है कि अपना १० वर्ष बचपना में बिताने के बाद झारखण्ड कि जवानी यही से शुरू होती है। खेल का रंगारंग शुरुवात और रंगारंग समापन। समापन समारोह में भले ही लोग कैटरीना कैफ के शीला कि जवानी पर ठुमके देख सके हों लेकिन इस आयोजन के बहाने झारखण्ड कि जवानी पूरे देश ने आंख पसार कर देखी। ऐसा नहीं कि लोग सिर्फ फिल्मी सितारों को देखने के लिये उमड़े बल्कि खेल के दौरान भीड़ इतनी कि पुलिस को लाठी तक भांजनी पड़ी। इसी से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि झारखण्ड के लोगों के दिलों में खेलों और खिलाडिओं के प्रति कितनी दीवानगी है।
चौक चौराहा ऐसा सजा कि देख कर विश्वास ही नहीं था कि ये वही रांची है जो आधी से अधिक सड़कों पर बसती है। ट्राफिक भी बिल्कुल खाली। जिस सड़क पर गाड़ियाँ सरकती थी उसपर गाड़ियाँ सरपट दौड़ने लगी। हर ओर नमस्कार और जोहार से गूंजता झारखण्ड ऐसा सजा की लग रहा था की खेल नहीं बल्कि झारखण्ड की बेटी की शादी हो॥
लेकिन मन में कुछ कसक रह गयी:
सचमुच में राष्ट्रीय खेल का सफल आयोजन से हर किसी को गौरवान्वित होने का मौका मिला। तभी तो प्रदेश के मुखिया मुंडा जी ने भी दिल खोल कर खिलाडिओं पर पैसों कि घोषणाएं किये और दहाड़ - दहाड़ कर भाषण दिए। करते भी क्यूँ नहीं आखिर कर उनके खिलाडियों ने प्रदेश को पांचवे पायदान पर जो ला कर खड़ा कर दिया था। इससे पहले झारखण्ड राष्ट्रीय खेल के इतिहास में कहीं इतनी अच्छी स्थिती में नहीं दिखा था। लेकिन क्या फ़िल्मी कलाकाओं को पैसे के बल पर बुला कर ठुमके लगवा कर और खुद से मंच पर चढ़ कर अपने अपने बारे में लम्बे चौड़े कहना, खुद मुह मिया मिट्ठू नहीं कहलायेगा। यह कहना की ये आयोजन इतिहास का सबसे सफल आयोजन है कहना गलत नहीं होगा। ये कैसा सफल आयोजन जिसमे देश की प्रसीडेंट नहीं आयी ही प्रधानमंत्री आये और ही उनका कोई सन्देश आया। हर किसी के मन में यही कसक रह गयी की काश देश में हो रहे ऐसे खेल में ये लोग भी आते तो चार चाँद लग जाती।

चार चाँद भले ही कुछ लोगों की वजह से लगा हो लेकिन एक ही चाँद की रौशनी में जिसने भी खेल गाव स्थित आधारभूत संरचना को देखा वो दंग रह गया और कहे बगैर नहीं रहे की ऐसा पहले कभी नहीं देखा। कुल मिला कर कहा जाये तो झारखण्ड की दबंगई हर किसी ने देखी चाहे वो खेल में प्रदर्शन को लेकर हो या फिर मेहमान नवाजी को लेकर हो। जय झारखण्ड, जोहार झारखण्ड, जागो झारखण्ड।

रविवार, 27 फ़रवरी 2011

हाय रे कैटरीना तुमको देख भी नहीं पाए......


२६ फ़रवरी का दिन था। हर दिन कि तुलना में सुबह जल्दी उठा। सुबह ९ बजे तक नहा-धो कर तैयार हो गया। हाँ दिन कुछ खास था क्यूंकि आज कैटरीना का दीदार होने वाला था। मैं पास के चक्कर में इधर-उधर फोन नहीं घुमा रहा था क्यूंकि मेरे पास "ड्यूटी पास" था। अपने लॉज में मैं बड़ा इतरा रहा था। क्यूंकि पूरे लॉज में एकलौता मैं ही था जिसके पास नेशनल गेम का पास था। सभी पूछ भी रहे थे क्या बात है भैया आज बड़ा सवेरे तैयार हो गये हैं। और मैं सीना चौड़ा करके कह रहा था नेशनल गेम वाला प्रोग्राम देखने जा रहे हैं, और साथ ही ये भी जोड़ दे रहे थे कि अरे क्या करे जाने का भी मन नहीं कर रहा हैं लेकिन क्या करें ड्यूटी पड़ा है इसलिए जाना पड़ रहा है। एक बजे घर से निकला। ऑटो से ही जाने का सोचे क्यूंकि पिछले दिनों कि गलतियों का एहसास था। सालों ने मेरा हेलमेट चुरा लिया था। कांटाटोली पहुचे तो पता चला कि इधर से ऑटो जाना आज माना है। क्या करते अब कोई उपाय भी नहीं था कैटरीना को याद किये और पैदल ही चल दिए। पहुँचते - पहुँचते पसीना छुट गया। लेकिन मन ही मन सोचे कि कैटरीना जैसी हसीना को देखेंगे तो सब पसीना सुख जायेगा।

गेट पर पहुँचने से पहले अपना कार्ड निकाले और गला में लटकाके सीना ऊँचा करके मेन गेट कि ओर बढ़े, एक सिपाही बोला इधर कहाँ उधर से जाईये। तभी मुझे इस कार्ड का औकात पता चल गया था. फिर भी हिम्मत नहीं हारा आगे बड़ा तो देखा वीआइपी कार पार्किंग वाला गेट खुला है। धीरे से सुरक्षा को चकमा देते हुए अंदर चले गये। लेकिन अभी और कई घेरे पार करने बांकी थे। किसी तरह अपने आत्मविश्वास को दिखाते हुए अभिमन्यु कि तरह हरेक दरवाजे को पार करते गया. आखिरकर मेन स्टेडियम तक पहुँच गया। मुझे पहले से पता था कि टावर पर मुझे जाने नहीं देगा इसलिए उधर समय जाया न करते हुए नीचे के दरवाजे से मैदान में ही जाने का उपाय करने लगा। आत्मविश्वास से सीना ऊँचा करके ड्यूटी पास लटका कर अंदर जा रहा था कि एक सिपाही ने कहा कि आप लोग को अंदर जाना माना है। फिर भी मैंने अपना मन छोटा नहीं किया। फिर मैं पीछे कि दरवाजे कि ओर गया देखा कि वहां कोई नहीं है। आखिरकर स्टेडियम के अंदर आ ही गया।

अंदर आ गया तो ऐसा लगा मानो मेरा मेहनत सफल हो गया। मैदान के चारो तरफ घूम कर काम कि निगरानी ऐसे करने लगा जैसे आर. के . आनंद मैं ही हूँ। तब तक समय ३:३० हो चुके थे। मैं मन - ही मन सोच रहा था कि कब पांच बजेगा? थोड़े देर में गायक शान आये, बड़ा नजदीक से देखने का मौका मिला । उसने कुछ रिहर्सल भी किया। अब सोचे कि एक कोना पकड़ लेते हैं। एक साइड में जा कर घास पर बैठ गया। तभी अचानक से पुलिस सभी को बाहर निकलना शुरू किया मैं धीरे से इधर - उधर होता रहा। पुलिस से बचते - बचाते आखिर कर प्रोग्राम शुरू हुआ, तब जा कर राहत का साँस लिये कि चलो आखिर कर हम सफल ही हुए। मीडिया गैलरी के नीचे मैदान पर बैठ कर हवा में उड़ते जाबाजों का आनंद लेने लगा। सभी माननीयों का भाषण भी वहीँ से सुना। गुस्सा भी आ रहा था कि किता लम्बा चौड़ा सब भाषण दे रहा है पेपर में छपवा देता सभी लोग पढ़ लेते। मन में बस एक ही हलचल थी कि कब कैटरिना आएगी कहीं कैटरिना के आने के पहले ही मुझे न निकल दे।

घास पर बैठ कर प्रोग्राम का मजा ले रहा था. तभी सिनेयुग वाली एक लड़की आयी और बोली कि ये बैलून पकड़ कर रहो जब सीएम् साहब छोड़ेंगे तो तुम भी छोड़ देना। फिर क्या था अब तो मन ही मन सोच रहा था कि चलो अब तो कोई नहिये निकलेगा। मैं बैलून पकड़ कर स्टेडियम में जा कर खड़ा हो गया। बैलून छोड़ने में भी पूरा इतरा रहे थे क्यूंकि मुझे पता था कि पीछे से मेरे जेनेलिया मुझे देख रही होगी. लेकिन मन ही मन सोच भी रहा था कि इधर देख रही है कि नहीं इसलिए मैं थोड़ा इधर - उधर और बैलून को ऊपर - नीचे कर रहा था कि उसका ध्यान खींच सकों. बैलून छोड़ा आ कर फिर वहीँ बैठ गया. अभी कुछ ही देर प्रोग्राम का मजा लिये थे कि फिर से पुलिस आयी और इस बार मैं बच नहीं पाया। सालों ने बाहर ले जा कर ही दम लिया। हम गिड़-गिडाते रहे लेकिन सालों ने कैटरिना के प्रति मेरे प्यार को समझ नहीं पाए।

अब बाहर निकल कर सोच रहे थे कि क्या करे ? स्टेडियम के तीन - चार चक्कर लगा दिए लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अब क्या करे सोचने पर मजबूर हो गये। लॉज भी नहीं जा सकता था क्यूंकि वहां तो बहुत लम्बा चौड़ा फेक कर आया था। १० रुपये का बादाम खरीद कर खा रहे थे और सोच रहे थे कि और कुछ देर अंदर रहने देता अब तो कैटरिना भी आ ही जाती। सोच रहा था कि लॉज जाकर क्या बोलेंगे ? कहीं कोई पूछ दिया कि कैटरिना किस रंग का कपडा पहनी थी तो क्या बताऊंगा ?

तभी देखा कि कुछ लोग निकल कर जा रहे हैं। मैं सोचा क्यूँ नहीं इनसे टिकट लेकर अंदर चलूँ। तब शुरू किये टिकेट मांगना। नमस्ते आंटी जी आप तो घर जा रही हैं अपना टिकट दे देती तो मैं प्रोग्राम देख लेता ? फिर क्या था तरह- तरह का बहाना कि नहीं गेट पर चेक करेगा तो, रास्ते में पुलिस वाला पूछ दिया इतनी रात को कहाँ से आ रहे हैं तो। फिर भी निराश नहीं हुआ कई लोगों से मिला लेकिन किसी ने अपना बेकाम का टिकट मुझे नहीं दिया।

अब तो ऐसा लग रहा था मानो मेरे लिये ही इतना पुलिस लगा दिया है कि कहीं हम कैटरिना से मिल न लें। सोच रहा था बेचारी मुंबई से चल कर आयी है और हम देख भी नहीं पाए।

फिर क्या था इधर उधर घुमने लगा। तो देखा कि बहार एक स्क्रीन लगाया है लेकिन वहां भी इतना भीड़ कि आगे जाने कि लिये जी जान लगाना पड़ेगा। आखिर करते भी क्या किसी तरह फिर से वो निकम्मा ड्यूटी पास गला में झुला कर कूदते फान्गते आगे पहुँच गये। अब बैठ कर स्क्रीन पर प्रोग्राम का मजा लेने लगे। और हर चीज़ को याद करने लगे कि कौन कैसे आया, कौन क्या पहना है। क्यूंकि लॉज जा कर सबको बताना था कि मैंने तो एकदम करीब से देखा। लेकिन मन यही कह रहा था। हाय रे कैटरिना तुमको देख भी नहीं पाए ....

लॉज पहुंचे तो सभी मेरे इंतज़ार में ऐसे खड़े थे जैसे मैं कोई युद्ध जीत कर आया हूँ। लेकिन एक बार तो मेरा मन दार भी गया था कि कहीं ये लोग को पता तो नहीं चल गया कि मुझे निकाल दिया था. लेकिन जब उनलोगों ने कैटरीना के बारे में सवाल पूछना शुरू किया तो कुछ राहत हुआ. फिर क्या था सवालों कि झड़ी लगा दिया सबों ने. कदम रखते ही तरह-तरह का सवाल। अच्छा भैया नजदीक से देखने में कैटरीना कैसी लग रही थी। आप कितना नजदीक से देखे? और कई सवाल ...... सभी मेरी आँखों में कैटरीना कि झलक देखना चाहते थे. लेकिन मेरी आँखों में तो था कुछ और.......

कैटरिना कोई बात नहीं हमदोनो मिल नहीं पाए तो क्या हुआ सपने में हम रोज तेरा दीदार करेंगे। और बीती रात तो तुम मेरे सपने में आ भी गयी थी। बस इसी तरह तुम हर रोज मेरे सपने में आती रहना ...

बुधवार, 19 जनवरी 2011

राम को मदद करने के नाम पर हम सब मौन क्यूँ हैं ?


ये पढकर बड़ा दुःख हुआ की राम को बोन कैंसर हो गया है और डॉक्टरों ने बेहतर इलाज के लिये उसे देल्ही ले जाने को कहा है लेकिन उसके परिवार की माली हालत इस लायक नहीं है की वो राम का इलाज देल्ही में करा सकें. बेबस माँ बस अपने लाल को गोद में सुला कर भगवान से अपने लाल के जीवन की लड़ाई लड़ रही है. आसुओं से भरी माँ की आखें और कपकपाते होठ शायद भगवान से यही सवाल कर रही है की आखिर क्यूँ मुझे ये सब देखना पड़ रहा है? कहा जाता है की भगवान राम का नाम बार-बार लेने से सारे दुखों का निवारण हो जाता है। शायद यही सोच कर इस बच्चे का नाम राम रखा गया होगा। लेकिन इस छोटी से उम्र में इस राम पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है।

जरा
सोचिये ...
आज से कुछ महीनों पहले की बात है. अयोध्या पर फैसला आने वाला था. हर ओर बस एक ही चर्चा थी की राम मंदिर वहां बनेगा या नहीं, हर कोई को उस गुजरे हुए राम के आशियाने की चिंता सता रही थी. जरा सा कोई बोल दे तो जान लेने - देने तक की बात हो जाती थी. लेकिन आज एक जीवित राम हर दिन मौत की ओर बढ रहा है उसकी फ़िक्र और चर्चा किसी के भी जुबान पर भी नहीं है. हम ऐसे देश के निवासी हो गए हैं जहाँ जीवित लोगों को दुत्कारा जाता है लेकिन वही शरीर जब आत्मा त्याग देती है तो हम प्रणाम करने लगते हैं। मंदिर बना कर हम राम की मूरत को तो बैठा सकते हैं लेकिन एक छोटी सी मदद कर हम एक राम को जीवन दे सकते हैं। तो फिर क्यूँ न हम सब मिल कर राम की दिल खोल कर मदद करें और समाज में एक मिसाल कायम करें की अभी भी हमारे अंदर इंसानियत जिंदा है। कहा भी जाता है की भगवान किसी न किसी रूप में धरती पर आते रहते हैं और सबकी परीक्षा लेते हैं की कौन कैसा है। हो न हो इस बच्चे राम के बहाने भगवान राम ये जानने की कोशिस कर रहे होंगे की कौन अच्छा है और कौन बुरा?
सवाल ....
  • हम सभी तो हर दिन अपने लिये जीते और कमाते-खाते हैं क्या एक दिन राम को नहीं दे सकते हैं?
  • हर कोई पुन्य का भूखा होता है, तो क्या इस सुअवसर का लाभ हम नहीं उठा सकते हैं?
  • क्या हम थोड़ी देर के लिये इस राम को उस राम से जोड़ कर सबकुछ निछावर नहीं कर सकते हैं?
  • राम हर किसी के दिल में बसते हैं फिर इस राम की मदद के लिये हम सब मौन क्यूँ हैं?
हमें उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है की सबों की मदद से राम एक दिन स्वस्थ होगा।
नोट: राम का परिवार डीपीएस स्कूल के पीछे लंका क्लोनी सेक्टर २ में रहता है।