मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

आखिर लोग ऐसे कैसे होते जा रहे हैं.....?




एक बार फिर से वही हुआ......२८ सितम्बर की शाम थी. सुबह बॉस आने वाले थे रिपोर्ट तैयार करना था इसलिए ऑफिस में बहुत देर हो गयी थी. करीब रात के नौ बजे मैं ऑफिस से निकला. हिनू आइलेक्स के आगे वाले पुल के पास देखा भीड़ लगी हुई है. जब गाड़ी से उतर कर देखा तो मुझे पिछली घटना याद आ गयी. लेकिन यहाँ मंजर और भी शर्मनाक था. दो लोग जमीन पर खून से लत - फत चटपटा रहे थे. कुछ लोग हाथ तो जरुर बढाये लेकिन वो सिर्फ उनके पैसे और मोबाइल समेटने के लिये. तबतक मेरे अन्दर का इन्सान जाग गया. मैं पागलों की तरह गाड़ी वालों को उसे हॉस्पिटल पहुँचाने का आग्रह करने लगा लेकिन हर कोई यही कह कर गाड़ी आगे बड़ा दिया की जरुरी काम है या फिर परिवार बैठा है. अंतिम में कोई एक भले इन्सान ने उसे हॉस्पिटल तक पहुँचाने के लिये तैयार हुआ. लेकिन अब उसे उठा कर गाड़ी पर रखने के लिये कोई आगे नहीं आ रहा था. किसी तरह मैंने और वो गाड़ी वाले ने उन दोनों को चडाया. नजदीक के ही डोरंडा सरकारी हॉस्पिटल में दोनों को उतरा. मैंने आवाज़ लगाया की जल्दी से स्ट्रेचर लेकर आइये, हॉस्पिटल का एक कर्मचारी आया और कहा की यहाँ सिर्फ डेलिवेरी रोगी को देखा जाता है. दोनों हॉस्पिटल के बरामदे पर ऐसे पड़े थे जैसे अब सबकुछ खत्म हो गया हो. मेरा धैर्य अब जवाब देने लगा था क्यूंकि वो गाड़ी वाला भी उतार कर चला गया. मैं अकेला कभी इसको हिल्ला रहा था तो कभी उसको लेकिन लग रहा था दोनों गहरी नींद में समां रहे थे. अब मैं अंदर से पूरी तरह टूट चुका था. तभी अपने कुछ पत्रकार मित्रों को मैंने फ़ोन किया सभी ओर से निराशा ही हाथ लगी. मैं जोर-जोर से हॉस्पिटल वाले को कोसने लगा, अचानक से मुख से निकाल गया की मैं पत्रकार हूँ अगर इनलोगों को कुछ हुआ तो मैं तुम सबों को देख लूँगा. पत्रकार का नाम सुन कर उनके अंदर कुछ स्फूर्ति आयी. उनका खून पोछ कर मरहम पट्टी की गयी. तभी एक को होश आया मैंने घर का नंबर पूछा और फ़ोन घुमाया. २० मिनट के अंदर घर वाले पहुँच गए. जल्दी - जल्दी दोनों को आरएम् सीएच लेकर गया. बीस मिनट कागजी चक्कर में लगा फिर उन्हें कैथ लेब में भेझा गया. वहां का दृश्य ऐसा था की पूछिए मत....... दो लोगों ने मेरे सामने तड़प तड़प कर सांसे तोड़ दी. इनदोनो का भी इलाज शुरू हुआ तो पता चला की एक का हाथ अलग गया है. अब जुटेगा या नहीं ये भगवान भरोसे. तबतक सिर्फ सतीश के घर वाले आये हुए थे. कमलेश के घर से कोई नहीं आया था किसी तरह नंबर जुटा कर उन्हें भी इसकी सूचना दी गयी. वे लोग भी भागे - भागे पहुंचे. कमलेश की माँ मुझे पकड़ कर रोने लगी और बार -बार एक ही बात कह रही थी की मैं गुरु महाराज का बहुत पूजा करती हूँ ... जरुर उन्होंने ही आपको मेरे बेटे की जान बचाने के लिये भेजा होगा. फिर दोनों को वार्ड में भेजा गया. तबतक समय रात के एक बज चुके थे. सुबह साड़े नौ बजे मेरी मीटिंग थी. मैं घर आ गया. कल जब उनलोगों के बारे में पता किया तो पता चला की सतीश तो ठीक है लेकिन कमलेश का एक दाहिना हाथ और एक दाहिना पैर काम नहीं कर रहा है.

पूरी घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं:
1. क्या सड़क पर गिरा हुआ कोई आदमी जिससे कोई रिश्ता नहीं होता वो अपना नहीं होता है?
2. क्या हम इतने गिरे हुए इन्सान हैं की जान बचाने की जगह पैक्केट तलासते हैं?
3।क्या सरकारी हॉस्पिटल में सिर्फ डिलेवरी के रोगी का ही इलाज होता है?

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जरुरत है ऐसे हाथों की...


झारखण्ड में एक जिला गोड्डा है। यदि ठाकुरगंगटी को छोड़ दें तो यही एक ऐसा जिला है जो अब तक नक्सलियों की पकड़ से बचा हुआ है। यहाँ हमेशा अमन चैन बना हुआ रहता है। गोड्डा से ठीक १५ किलोमीटर उत्तर की दिशा में एक पथरगामा प्रखंड है। यही मेरा पैतृक गाँव है। इस धरती के कई ऐसे लाल हैं जो देश और दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं। मीडिया में सबसे पहली श्रेणी में नाम आने वाले पुन्य प्रसून बाजपयी भी इसी प्रखंड से तालुकात रखते हैं। मैं बचपन से ही इन्हें अपना आदर्श मानता आ रहा हूँ। करीबी हैं शायद इसलिए भी। इनके अलावा एक और वैक्ति हैं जिनकी जीवन शैली और काम करने का ढंग से मैं खासा प्रभावित हुआ हूँ। वो हैं "दिलीप कुमार झा "।
झारखण्ड में भ्रस्टाचार का कोई सानी नहीं नहीं है। हर दिन नए मामले प्रकाश में आ रहे हैं। चाहे कोई भी हो अपने आप को इस भस्मासुर से अलग नहीं कर पा रहा है। लेकिन कुछ ऑफिसर अभी भी ऐसे हैं जिनका दामन साफ़ है। उन्ही में एक हैं दिलीप झा। उस समय मेरी उम्र करीब १०-११ साल के करीब होगी, चौक पर मेन रोड के बगल में मेरा स्कूल था। उसी के बगल में प्रखंड कार्यालय था। उसी प्रखंड में सीओ के पद पर वो आसीन थे। लेकिन तब तक मैं उनके बारे में कुछ नहीं जनता था। गांव में पूरी तरह से बड़ी जाती वाले का दबदबा था। चाहे गांव का प्रमुख हो या सरपंच या फिर मुखिया सभी पर उन लोगों का एकाधिकार था। चौक की लगभग सारी जमीन पर उनलोगों का कब्ज़ा था।
लोग दिलीप झा को नानापाटेकर के नाम से पुकारते थे। दबे-कुचले गरीब लोगों के ये मसीहा कहलाते थे। ये किसी भी काम में अपने सहयोगियों का सहारा नहीं लेते अपने दम पर ये लड़ते थे। मेरी उनसे मुखातिब होने की बड़ी इच्छा हो रही थी. मैं स्कूल से छुट्टी के वक़्त घर की ओर लौट रहा था। तभी देखा की चौक पर सरकारी जमीन पर अवैध रूप से लगाये गए सभी दुकान को कोई हटा रहा है। मैं भी भीड़ में शामिल हो कर तमाशा देखने लगा। पुलिस और कई सरकारी कर्मचारी भी इसके गवाह बन रहे थे। तभी किसी के मुह से निकला की "कैसन सीओ बा सब काम अपने से करत बा "। तभी मुझे पता चला की यही है दिलीप झा। सच में एकदम लग रहा था की कोई फिल्म देख रहे हैं। हीरो की माफिक वो दुकान और बसेरा तोड़ रहे थे। उम्र और अनुभव के आधार पर इनकी प्रोनात्ति होती चली गयी। वो बीडीओ बन कर भी इसी गांव में आये और लोगों की सेवा की। फिर ये गोड्डा के ही एसडीओ बने। जब ये गोड्डा के एसडीओ बन कर आये थे तो सारे इलाके में तहलका मच गया था। सभी अवैध धन्दा करने वाले अपना बोरिया बिस्तर समेट लिये थे। वो रात दिन कभी भी छापा मार देते थे। वो कहाँ जा रहे हैं ये बात उनके ड्राइवर को भी पता नहीं रहता था।
सुनी हुई बात है की जब उनकी लातेहार में पोस्टिंग हुई तो नक्सलीओं ने उनकी बीबी का अपहरण कर लिया था। और उसके एवज में पैसों की मांग कर रहे थे। उन्होंने पैसा देने से साफ़ मना करते हुए कहा था की मेरी बीबी की सिर्फ इज्ज़त मत लूटना। चाहो तो तुम मार सकते हो लेकिन मैं पैसा नहीं दूंगा। गज़ब का काम करने का उनका अंदाज़ है। आज तक किसी की मजाल नहीं की कोई उनपर ऊँगली उठा सके। आज वो फिर से एक बार उसी गोड्डा जिला में डीडीसी के पद पर आये हुए हैं। और अपने वही पुराने रंग में देख रहे हैं। सभी अवैध कारोबारी अपना बोरिया बिस्तर फिर से समेटने लगे हैं।
झारखण्ड जैसे भ्रष्ट राज्य में दिलीप झा जैसा ऑफिसर अपने आप में एक मिसाल है। दुसरे ऑफिसर को उनसे सिख लेनी चाहिए। मुझे तो इनमे फिल्म नायक के नायक अनिल कपूर भी दिखते हैं। सिर्फ एक दिन का सीएम। काश एक बार दिलीप झा को एक दिन का सीएम बना दिया जाये। मज़ा आ जायेगा। मेरा दावा है की सिर्फ एक महीने में पूरे झारखण्ड की तस्वीर बदल जाएगी।
आज झारखण्ड को दिलीप झा जैसे कई हाथों की जरुरत है जो एक साथ मिलकर इस प्रदेश की तक़दीर और तस्वीर बदल सकें। क्यूंकि कहा जाता है की अकेले चना बांड नहीं फोड़ सकता है। जागो झारखंड जागो !!
जय हिंद।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

संकट में भगवान....


जब भी हम पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ता है तो हम सब भगवान के भरोसे छोड़ कर, दिल पर हाथ रख आल इज वेल करके दिल बहलाने की कोशिस करते हैं। लेकिन जरा सोचिये जब हम सब की रक्षा करने वाले का ही अस्तित्व संकट में पड़ जाये तो ऐसी स्तिथि में हम सब का अस्तित्व किसके भरोसे बचेगा।

क्या हुआ:
झारखण्ड में इनदिनों भगवान संकट में हैं। अभी रजरप्पा से माँ की प्रतिमा के साथ छेड़-छाड़ और गुम होने का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था की एक बार फिर भगवान का अस्तित्व यहाँ संकट में पड़ गया है। सरकार ने रांची समेत पूरे प्रदेश के ३३५ मंदिर पर बुलडोज़र चलाने के लिए चिन्हित किया है। क्यूंकि ये सारे मंदिर सरकारी जमीन पर है। १० से ४० साल पुराणी इन मंदिरों को हटाने की सरकार ने नोटिस क्या भेजी सभी धर्मप्रेमियों का खून खौल गया। और सड़क पर उतर गए। सभी धर्म प्रेमी की ऑंखें नाम हो गयी है। उन्हें बस यही चिंता सता रही है की अब वो किसके पास अपनी फरियाद ले कर जायेगे। इस स्वार्थ से परिपूर्ण दुनिया में उनकी बात्तें कौन सुनेगा। सभी के आखिरी रास्ता भगवान ही तो थे जो सभी के दुःख को सुनते थे और समयानुसार उसका समाधान भी करते थे। लेकिन अब वो उनसे दूर चले जायेंगे। सभी का कलेजा यही सोच-सोच कर फटे जा रहा है। अब तो डर है की कहीं ये गुस्साए भक्त कुछ अनहोनी कर दे।

क्या हो सकता है:
सरकार ने तो नोटिस सभी पुजारियों को भेज तो दी है लेकिन उनके जगदाता को उनसे अलग करने की बात उनकी अन्दर समां नहीं पा रही है। अब सबको यही डर की कहीं इतिहास दोहराए। कुछ साल पहले महाबीर मंदिर डोरंडा में रामनवमी का जुलूस पर रोक के बाद जो जनांदोलन हुआ था कहीं वो फिर से दोहराए। सभी पार्टी वाले अपने - अपने बैनर और पोस्टर लेकर सड़क पर उतर जायेंगे। ऐसे में सरकार को हर हाल में जनता के सामने झुकना ही होगा।

होना क्या चाहिए:
आज सभी लोग ट्राफिक जाम के चलते अपना बेस्किमती समय सड़क पर बिता देते हैं। कारण एक है की हमारे पास उतने चौड़े सड़क नहीं है जितना की आज शहर को जरुरत है। जहाँ मन करता कोई भी गाड़ी खड़ी कर देता है। पकडे जाने पर ऊँची पैरवी से छुट जाता हैं। दूसरा कारण है की फुथपाथ वाले अलग से सड़क पर कब्जे किये हुए है। आज जिस गति से हमारे आँगन में दिवार उठ रही है, भाई - भाई से अलग हो रहा है। ठीक वही गति से भगवानो की भी संख्या भी बढ रही है। लोग अपनी जमीन बचाने के लिए घर के सामने मंदिर मना देते हैं। ऐसे में ये किसी के नज़र में सही नहीं है। लेकिन जब सरकार इसे हटाने की बात करता है तो फिर हमारा हिंदुत्व जाग जाता है। हम सड़कों पर लाठी डंडे लेकर उतर जाते हैं। लेकिन ये नहीं सोचते की जिसको हम पूजते हैं उसे हम एक पह्रादार की तरह घर के बाहर खड़े कर देते हैं, और उसी के पीछे से स्विस बैंक में पैसा भरते हैं। भगवान हर मन में और हर किसी के दिल में बसते हैं। बस जरुरत है उन्हें महसूस करने की। भगवान भी ये नहीं चाहेंगे की उनके नाम पर खून खराबा हो। आज हमारे घर में कई ऐसे बुड़े माँ- बाप है जिनकी सही से सेवा नहीं हो पाती है लेकिन मंदिर जाकर हम खूब मिठाई और प्रशाद चडाते हैं। आज सिरडी में अरबों रुपये के लागत से मंदिर बनाया गया है। जबकि जिस भगवान को हम वहां पूजते है वो एक साधारण आदमी थे। उन्हें ये सब पसंद नही था।
जब भगवान को ये सब पसंद नहीं था तो फिर हम ये सब क्यूँ कर रहे हैधर्म के नाम पर इतना शोर क्यूँ मचा रहे हैंपूरा प्रदेश आकाल की चपेट में हैलोग भूख से मर रहे हैंलेकिन उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं हैइन सभी काम में हम अपना धर्म भूल जाते हैंहम सिर्फ महंगा अगरबत्ती से पूजा करने से ही अपना धर्म पूरा हो गया यही समझ लेते हैं
जय झारखण्ड! जय हिंद!

बुधवार, 25 अगस्त 2010

काश मैं गोरा होता......?


मैं कुवारा हूँ मेरा रंग काला है। मैं कई लड़किओं को देखता हूँ वो भी मुझे देखती हैं, देखेंगी और शायद देखती रह जाएँगी। यह सब जान कर कोई आशचर्य नहीं होता है। क्यूंकि आश्चर्य तो तब होगा जब लड़कियां मुझे पसंद कर लेगी। इस बार भी इनमे से किसी लड़की ने मुझे पसंद नहीं किया। हर बार यही होता है जब भी कोई नयी और अच्छी लड़की देखता हूँ तो उत्साह से भर कर सज सवरकर उसके चक्कर इस प्रकार काटने लगता हूँ। जैसे एलेक्ट्रोन नियोकिलस का चक्कर कटता हैं।

काला होना एक पुरुष के लिए कितना बड़ा अभिशाप है उसे हर काला पुरुष ही समझ सकता है। घर-बाहर आते-जाते सभी जगह ताने और फुसफुसाहट सुननी पड़ती है। जब दोस्तों की महफ़िल में बैठता हूँ तो वे लोग भी भले भूरे कह कर मजाक उड़ाते हैं। एक बार एक दोस्त ने कहा-लगता है जब भगवान तुझे बना रहे होंगे तो लाइट चली गयी होगी, तो तुझे डिबिया के प्रकाश में ही बना रहे होंगे। जिससे डिबिया का धुवां तुझ पर कर बैठ गया होगा और तू गोरा से काला हो गया होगा। एक दिन जब मैं लाल रंग का शर्ट पहन लिया तो ऐसा लगा मानो भूचाल गया हो। सभी कहने लगे ऐसा लग रहा है जैसे कोलवरी में आग लग गयी हो। इनसब से तंग आकर जब मैंने अपनी माँ से पूछा की माँ मैं काला क्यूँ हूँ तो माँ ने भी मेरा मजाक उड़ाते हुए कहा की तू पहले गोरा था लेकिन बचपन में तुझे एक बार करेंट लगा था तभी से तू काला होगा है। एक बार एक दोस्त के यहाँ पार्टी में गया था तभी एक बच्चे से मेरे दोस्त ने पूछा की छोटू गुलाब जामुन खाए की नहीं, बच्चा बोला कैसा होता है तो उसने मेरी तरफ दिखाते हुए कहा की देखो ऐसा होता है। बच्चे ने भी मुझे नहीं छोड़ा और कहा की नहीं इससे थोडा साफ़ था।

ये सब सुन कर मेरा खून खौल जाता है। लेकिन कुछ कर भी नहीं सकता आखिर में सत्य तो यही है की मैं काला पुरुष हूँ। बस जिंदगी का एक कड़वा सा घूंट पी कर रह जाता हूँ। भगवान मुझे मिले तो मैं उनसे पुछुगा की उसने मुझे ही काला क्यूँ बनाया। मेरे मम्मी-पापा, भाई-बहन कोई काले नहीं तो फिर मुझे ही काला क्यूँ बनाया। आखिर किस जन्म का बदला लेने के लिए मुझे काला बनाया।

मेरे भी कुछ अरमान हैं, मैंने भी सपनों की महल बनाई है। लेकिन सभी इस काला होने की वजह से बेकार हो जाते हैं। जब भी कोई गोरा लड़का देखता हूँ तो बस यही सोचता हूँ की काश मैं भी ऐसा होता तो मेरी भी दो चार गर्लफ्रेंड होती। मै भी उसकी बाँहों में सर रख कर सुख-दुःख बांटता। लेकिन ये कभी हो सका। मेरे अन्दर के दुःख मेरे आत्मा की पीड़ा शायद भगवान भी सहन कर पाए। एक जवान लड़के का काला होना से बड़ा अभिशाप और कुछ नहीं हो सकता है।

हे भगवान मेरी आपसे यही विनती है की किसी को काले नहीं बनाये। यदि यह बात सच है की आदमी बनाते- बनाते लाइट चली जाती है और आप डिबिया के प्रकाश में ही आदमी बनाने लगते हैं जिससे डिबिया का धुवां आदमी पर पड़ कर उसे गोरा से काला बना देता है तो आप एक जेनेरेटर खरीद ले। जिससे लाइट जायेगा ही आदमी काला होगा। क्यूँ ठीक कहा ..?

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

भैया को तलाशती बहन...


रक्षाबंधन भाई और बहन के प्यार का त्योहार है। इसे रेशम के धागों का त्योहार भी कहा जाता है। इस दिन बहन अपने भाई की कलाई पर राखी बांधती है और कहती है की इसी तरह हमारा और आपका भी जन्म-जन्मांतर तक रिश्ता बना रहे। इस दिन भाई कहीं भी हो अपनी बहन के पास उसका प्यार और आशीर्वाद पाने जरुर आता है। बहन भी दिल खोल कर अपने प्यारे भैया का स्वागत करती है और जीवन में कभी कोई समस्या न आये और साथ ही लम्बी उम्र की कामना करती है।

मेरे होस्टल के ठीक बगल में एक ब्राह्मन का परिवार रहता है। दोनों मिया बीबी की उम्र ५० के करीब होगी। अपना गुजारा फुटपाथ पर दुकान चला कर किया करते हैं। जैसे भी हो ईमानदारी की रोटी से ये लोग काफी खुश रहते हैं। शायद भगवान इनसे नाखुस थे इसलिए शादी के डेड़ दशक बाद इनके आँगन में किलकारी गूंजी। आज इनकी दो बेटी है। दोनों देखने में एकदम गुड़िया है। ये दोनों भी जितने हैं उतने में ही काफी खुश रहती है। दोनों आज स्कूल भी जाती हैं। एक की उम्र १३ साल तो एक ९ साल की होगी।

हमारे होस्टल से इनकी माँ के हमेशा से अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। ये हर लड़के में अपने बेटे का चेहरा देखती है। पर ऐसा नहीं है की ये अपनी दोनों बेटी को बेटा से कम प्यार करती है। बचपन से ही रक्षाबंधन के दिन ये दोनों बहने भाई को राखी बांधने के जिद पर अड़ जाती थी, क्युकि इनकी सारी सहेलियां अपने भाई को राखी बांधा करती थी। लेकिन भगवान ने इन्हें राखी बांधने के लिए भाई नहीं दिया है। इनका दिल रखने के लिए इनकी माँ ने होस्टल के एक लड़के को राखी बंधवाई। तभी से ही ये सिलसिला शुरु हुआ जो आज तक चलता आ रहा है। धीरे-धीरे यहाँ रहने वाले सभी लड़के इनदोनो बहनों के भाई हो गए और राखी बंधवाने लगे। आज इनदोनो बहन के २०० से भी ज्यादा भाई हैं। लेकिन अफ़सोस है तो बस यही बात का की हर रक्षाबंधन में इनके सामने आने वाला हाथ बदल जाता है। होस्टल में हर साल लड़के बदल जाते हैं और हर साल इनके भाई भी बदल जाते हैं। आज इस बहन के प्यार और आशीर्वाद से कितने लडकें देश के कई नामी गिरामी कंपनियों का शोभा बड़ा रहे हैं। और कई तो सरकारी नौकरी में अच्छे पोस्ट पर हैं लेकिन जो एक बार यहाँ से गया वो फिर दुबारा नहीं आया।

आज ये दोनों बहन धीरे-धीरे बड़ी हो रही हैं और इनके पापा बुड़ापे की ओर बढ रहे हैं। इनकी जमीन इनके रिश्तेदारों ने बईमानी से अपने नाम कर लिया है। रहने के लिए एक छत की तालाश में इन्होने किसी तरह थोड़ी सी जमीन खरीदी थी। इस जालिम दुनिया वालों से वो भी न देखा गया और उसे भी हड़प लिया गया। बारिश का मौसम हर किसी के लिए खुशियाँ की सौगात लेकर आता है। लेकिन इस परिवार पर ये दुखों का पहाड़ लेकर आता है। यदि बारिश शुरू हुई तो इन्हें मोसक्यूटो गार्ड के ऊपर प्लास्टिक लगा कर रात भर जाग कर बिताना पड़ता है।

मैं आज तक जितने भी लोग इस होस्टल में रहे हैं, उनसे आग्रह करना चाहूँगा की अपनी इस बहन को इस कठिन परिस्थिती से जरुर निकाले। क्यूंकि आज इस बहन को जरुरत है मजबूत कन्धों की जिस पर सर रख कर अपना सुख-दुख बाँट सके।
जय हिंद।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

ये कहाँ आ गए हम ?



विकास के नये पैमाने पर कराये गये ताजा अंतरराष्ट्रीय अध्ययन के मुताबिक हिंदी पट्टी के ये दोनों प्रदेश झारखंड और बिहार" न केवल अपने देश में सबसे पिछड़े हैं, बल्कि दुनिया के सबसे बदहाल कहे जानेवाले देशों से भी मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं.

यह अध्ययन ब्रिटेन स्थित ऑक्सफ़ोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिऐटव (ओपीएचआइ) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) ने किया है. इसकी रिपोर्ट में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन -यापन के मामले में झारखंड की स्थिति आज हिंसा से जूझते अफ्रीकी देश रवांडा जैसी है. इसी रिपोर्ट में आज देश में विकास का पर्याय बनता बिहार भी मानव विकास सूचकांक में दुनिया के तीसरे सबसे पिछड़े अफ्रीकी देश सियेरा लियोन के बराबर खिसक जाता है.

प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर झारखंड और कृषि के लिए माकूल बिहार की भविष्य की तसवीर को पढ़ने के इरादे से दिल्ली की जानी-मानी संस्था इंडिकस से दोनों राज्यों का अध्ययन कराया था. इसमें सामने आया था कि अगर झारखंड के विकास की रफ्तार इतनी ही धीमी रही, तो 15 साल बाद यानी 2020 में इसकी स्थितिजिंबाब्वे जैसी होगी. अगर विकास की गति थोड़ी बढ़ भी जाये, तो भी श्रीलंका के आस-पास जाकर ठहर जायेगी.बिहार के बारे में इंडिकस का अध्ययन कुछ ज्यादा ही चिंतित करनेवाला था.

इसमें कहा गया था कि बिहार के विकास की रफ्तार उसे नेपाल या बांग्लादेश के आस-पास ही ले जा पायेगी. छह साल पहले यह आकलन प्रति व्यक्ति क्रयशक्ति (पीपीपी) के आधार पर जीडीपी का अनुमान लगाते हुए किया गया था. तब दो भिन्न अर्थव्यवस्थाओं की तुलना का यही सबसे वैज्ञानिक और तर्कसंगत मापदंड माना जाता था.अब ब्रिटेन स्थित ऑक्सफ़ोर्ड पॉवर्टी एंड ह्यूमन डेवलपमेंट इनिशिऐटव (ओपीएचआइ) और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की ओर से जारी एमपीआइ (मेजर्स ऑफ़ पॉवर्टी) की रिपोर्ट भी प्रभात खबर की ओरसे कराये गये अध्ययन पर मुहर लगाती है.

इस ताजा रिपोर्ट में आयगत निर्धनता के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन- यापन के स्तर से जुड़े 10 नये मानकों को शामिल किया गया है. एमपीआइ के इस बहुआयामी निर्धनता सूचकांक (मल्टीडायमेंशनल पॉवर्टी इंडेक्स) के आइने में भी झारखंड और बिहार 21 भारतीय राज्यों की सूची में 20वें और 21वें स्थान पर आता है. दोनों राज्यों को सबसे बदहाल अफ्रीकी देशों के बराबर अंक दिये गये हैं.

एमपीआइ की दृष्टि में नब्बे के दशक में भुखमरी से तीन लाख से ज्यादा लोगों की मौत की दास्तान बना सोमालिया बिहार से कुछ ही अंक पीछे है. भारत में केरल और गोवा को क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर रखा गया है, लेकिन उसे भी मध्यम दर्जे की आयवाले देश फ़िलीपींस और इंडोनेशिया के बराबर आंका गया है।

शनिवार, 10 जुलाई 2010

संघर्स की पत्रकारिता


पत्रकारिता की डिग्री करने के बाद हम सभी दोस्त खुश ऐसे हो रहे थे मानो सारा आसमान हमारे कदमो में आ गया हो। लेकिन आज हमारी ख़ुशी दम तोडती नज़र आ रही है। क्या क्या नहीं सपने बुने थे हम सभी ने, की कौर्स पूरा करने के बाद। ऐसा होगा हम वैसा करेंगे, लेकिन धीरे- धीरे सभी सपने धूमिल होते चले गए। कुछ दोस्तों की तो ऐसी हालत है की पिछले ६ महीनो से वेतन नहीं मिला। दो साल पहले श्री लेदर में जो जूता लिया था रिपोर्टिंग करते करते वो घिस चूका है। जमीन के कंकड़ अब जुते में आ जाते हैं। नए लेने के लिए दुकान जाने की हिम्मत नहीं होती। अगर इज्ज़त बचाने के लिए नया ले भी लिया तो न जाने कितने शाम पानी पी कर सोना पड़े। बाबूजी से पैसा मांग नहीं सकते क्यूंकि बाबूजी ने तो गाँव की चौताल पर सीना ऊँचा करके कहा है की मेरा बेटा राजधानी में पत्रकार है। हमेशा दूसरों की भलाई और दूसरों के हित के लिए लड़ने वाले पत्रकार की आज ऐसी स्थिती क्योँ है। हमेशा दूसरों के शोषण के खिलाफ लड़ने वाले पत्रकार की आज ऐसी स्थिती क्योँ है. आज क्योँ उसे मंरेगा में कम करने वाले मजदूर से भी कम वेतन मिलते हैं। दूर से चाक चौबंद चमचमाती देखने वाली इस दुनिया का इतना धिनौना सच हो सकता है हम सभी ने कभी ऐसा सोचा भी न था। पत्रकारिता में यदि पैसा नहीं मिलता है तो कहा जाता है यही संघर्ष है। इसी से आगे बढोगे। लेकिन भैया कब तक संघर्स करें। शरीर से सभी गुदे गायब हो गए हैं। अब सिर्फ हड्डी बची है। लेकिन अब वो भी जवाब देने लगी है। हमे पता है की पैसा ही हर कुछ नहीं होता है, लेकिन पैसा साध्य नहीं तो साधन तो है। हम बंगला नहीं चाहते हैं लेकिन एक छत तो होनी ही चाहिए जहाँ चैन के दो पल गुजारे जा सके। आज हमारी शादी के उम्र हो गए है लेकिन सवाल है की जब दो रोटी हम नहीं जुटा पते हैं तो चार रोटी कहाँ से ला पाउँगा। सुबह से रात तक इमानदारी से मेहनत करते हैं फिर भी माकन मालिक के ५ महीने का किराया नहीं दे पाया हूँ। आपको नहीं लगता की ऐसी ही स्थिती में ही युवा आज कलम उठाने की जगह लोहा उठा रहे हैं। आखिर इसका उपाय क्या है।