मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

आखिर लोग ऐसे कैसे होते जा रहे हैं.....?




एक बार फिर से वही हुआ......२८ सितम्बर की शाम थी. सुबह बॉस आने वाले थे रिपोर्ट तैयार करना था इसलिए ऑफिस में बहुत देर हो गयी थी. करीब रात के नौ बजे मैं ऑफिस से निकला. हिनू आइलेक्स के आगे वाले पुल के पास देखा भीड़ लगी हुई है. जब गाड़ी से उतर कर देखा तो मुझे पिछली घटना याद आ गयी. लेकिन यहाँ मंजर और भी शर्मनाक था. दो लोग जमीन पर खून से लत - फत चटपटा रहे थे. कुछ लोग हाथ तो जरुर बढाये लेकिन वो सिर्फ उनके पैसे और मोबाइल समेटने के लिये. तबतक मेरे अन्दर का इन्सान जाग गया. मैं पागलों की तरह गाड़ी वालों को उसे हॉस्पिटल पहुँचाने का आग्रह करने लगा लेकिन हर कोई यही कह कर गाड़ी आगे बड़ा दिया की जरुरी काम है या फिर परिवार बैठा है. अंतिम में कोई एक भले इन्सान ने उसे हॉस्पिटल तक पहुँचाने के लिये तैयार हुआ. लेकिन अब उसे उठा कर गाड़ी पर रखने के लिये कोई आगे नहीं आ रहा था. किसी तरह मैंने और वो गाड़ी वाले ने उन दोनों को चडाया. नजदीक के ही डोरंडा सरकारी हॉस्पिटल में दोनों को उतरा. मैंने आवाज़ लगाया की जल्दी से स्ट्रेचर लेकर आइये, हॉस्पिटल का एक कर्मचारी आया और कहा की यहाँ सिर्फ डेलिवेरी रोगी को देखा जाता है. दोनों हॉस्पिटल के बरामदे पर ऐसे पड़े थे जैसे अब सबकुछ खत्म हो गया हो. मेरा धैर्य अब जवाब देने लगा था क्यूंकि वो गाड़ी वाला भी उतार कर चला गया. मैं अकेला कभी इसको हिल्ला रहा था तो कभी उसको लेकिन लग रहा था दोनों गहरी नींद में समां रहे थे. अब मैं अंदर से पूरी तरह टूट चुका था. तभी अपने कुछ पत्रकार मित्रों को मैंने फ़ोन किया सभी ओर से निराशा ही हाथ लगी. मैं जोर-जोर से हॉस्पिटल वाले को कोसने लगा, अचानक से मुख से निकाल गया की मैं पत्रकार हूँ अगर इनलोगों को कुछ हुआ तो मैं तुम सबों को देख लूँगा. पत्रकार का नाम सुन कर उनके अंदर कुछ स्फूर्ति आयी. उनका खून पोछ कर मरहम पट्टी की गयी. तभी एक को होश आया मैंने घर का नंबर पूछा और फ़ोन घुमाया. २० मिनट के अंदर घर वाले पहुँच गए. जल्दी - जल्दी दोनों को आरएम् सीएच लेकर गया. बीस मिनट कागजी चक्कर में लगा फिर उन्हें कैथ लेब में भेझा गया. वहां का दृश्य ऐसा था की पूछिए मत....... दो लोगों ने मेरे सामने तड़प तड़प कर सांसे तोड़ दी. इनदोनो का भी इलाज शुरू हुआ तो पता चला की एक का हाथ अलग गया है. अब जुटेगा या नहीं ये भगवान भरोसे. तबतक सिर्फ सतीश के घर वाले आये हुए थे. कमलेश के घर से कोई नहीं आया था किसी तरह नंबर जुटा कर उन्हें भी इसकी सूचना दी गयी. वे लोग भी भागे - भागे पहुंचे. कमलेश की माँ मुझे पकड़ कर रोने लगी और बार -बार एक ही बात कह रही थी की मैं गुरु महाराज का बहुत पूजा करती हूँ ... जरुर उन्होंने ही आपको मेरे बेटे की जान बचाने के लिये भेजा होगा. फिर दोनों को वार्ड में भेजा गया. तबतक समय रात के एक बज चुके थे. सुबह साड़े नौ बजे मेरी मीटिंग थी. मैं घर आ गया. कल जब उनलोगों के बारे में पता किया तो पता चला की सतीश तो ठीक है लेकिन कमलेश का एक दाहिना हाथ और एक दाहिना पैर काम नहीं कर रहा है.

पूरी घटना ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं:
1. क्या सड़क पर गिरा हुआ कोई आदमी जिससे कोई रिश्ता नहीं होता वो अपना नहीं होता है?
2. क्या हम इतने गिरे हुए इन्सान हैं की जान बचाने की जगह पैक्केट तलासते हैं?
3।क्या सरकारी हॉस्पिटल में सिर्फ डिलेवरी के रोगी का ही इलाज होता है?