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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

रविवार, 7 जून 2015

उस ज़माने का कैटरर था बसंतराय तालाब।

बसन्तराय तालाब


नीचे जो तस्वीर है वो मेरे गाँव का बसन्तराय तालाब है। दादा जी बताते थे कि पहले जब गाँव में किसी के घर में शादी लगती थी और बर्तन की जरुरत पड़ती थी तो लोग इसी तालाब से बर्तन लेते थे। लोगों को जितने बर्तन की जरुरत होती थी उसकी एक लिस्ट पान और सुपारी के साथ तालाब के किनारे शाम को रख दिया जाता था और सुबह तालाब के किनारे पानी में बर्तन आ जाता था।शर्त सिर्फ इतनी भर होती थी कि जितना बर्तन ले जाया जा रहा है उसे गिनती के साथ लौटा दिया जाये। लेकिन समय के साथ जैसे - जैसे लोगों का इमान ख़राब होते गया और जो बर्तन जितना लाया उतना लौटाया नहीं तो फिर धीरे - धीरे तालाब ने बर्तन सप्लाय बंद कर दिया। इस तालाब की एक खास बात और है कि इसमें सालों भर गर्म पानी रहता है। अप्रैल महीने में इस तालाब की महत्ता और बढ़ जाती है। 14 अप्रैल को इस जगह पर विशाल मेला भी लगता है। ऐसा नहीं है कि बर्तन निकलने और अन्य बाते सिर्फ एक कहावत है बल्कि एक विदेशी जब संथाल परगना के दौरे से लौटकर किताब लिखा था तो उसमे भी इस बात का जिक्र था।

समय के साथ सबकुछ बदल गया। अब किसी बेटी के शादी में यह तालाब बर्तन नहीं देता। लेकिन इसकी एतिहासिक पृष्ठभूमि के आधार पर आज भी यहाँ मेला लगता है। और गोड्डा विधानसभा में बसंत राय की भूमिका आज भी उतनी ही है। क्यूंकि यही के एक मुस्त वोट से नेता विधानसभा तक पहुँचते है। लेकिन बसन्तराय के इस एतिहासिक तालाब की फ़िक्र किसी को नहीं शायद इसलिए 52 बीघा का तालाब अतिक्रमण का शिकार होते होते चंद बीघा में सिमट गया है।

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