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बच्चों से बात करते हुए. |
तकनीक और सलेबस के हिसाब से भले ही कमजोर हूँ लेकिन जीवन के संघर्षों ने बहुत कुछ सिखाया है। हमेशा चाहता था कि उन बच्चों को पढ़ाउं जिनतक शिक्षादीप के लौ पहुँचते - पहुँचते दम तोड़ते हों। अजय जी के सहयोग से आज वो सौभाग्य मिला। मेरे साथ वो बच्चे हैं जिनके माता पिता ईंट भट्टों में काम करने के लिए झारखण्ड से पलायन कर जाते हैं। ये बच्चे झारखण्ड के घोर नक्सल प्रभावित गुमला, लोहरदगा, खूंटी, लातेहार और रांची के हैं। आशा नाम की संस्था ऐसे बच्चों के लिए सीजनल हॉस्टल खोलकर उनका भविष्य सवार रही है। लेकिन कठिन परिस्थिति में पढ़ाई कर रहे इन 150 बच्चों के सामने भविष्य की चिंता है... क्योंकि जो संस्था इन बच्चों को मदद कर रही थी उसने हाथ खींच लिया है। अब बच्चे चिंतित हैं कि वे अपनी पढाई कैसे जारी रखेंगे और कैसे अपने सपनो को साकार करेंगे। एक बच्चे के लिए एक दिन में 40 रुपये खर्च आता है। हो सके तो मजदुर दिवस पर आपसब भी ऐसे बच्चों के लिए आगे आएं नहीं तो ये भी ईंट भट्टों में अपना करियर झोंकने को मजबूर हो जायेंगे।
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