मेरे बारे में

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झारखण्ड के रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता का छात्र हूँ ! आप बचपन से ही भावुक होते हैं ! जब भी आप कोई खबर पढ़ते-सुनते हैं तो अनायास ही कुछ अच्छे-बुरे भाव आपके मन में आते हैं ! इन्हीं भावो में समय के साथ परिपक्वता आती है और वे विचार का रूप ले लेते हैं! बस मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही है! कलम काग़ज से अब तसल्ली नहीं होती ! अब इलेक्ट्रॉनिक कलम की दुनिया भाने लगी है !

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

जरुरत है ऐसे हाथों की...


झारखण्ड में एक जिला गोड्डा है। यदि ठाकुरगंगटी को छोड़ दें तो यही एक ऐसा जिला है जो अब तक नक्सलियों की पकड़ से बचा हुआ है। यहाँ हमेशा अमन चैन बना हुआ रहता है। गोड्डा से ठीक १५ किलोमीटर उत्तर की दिशा में एक पथरगामा प्रखंड है। यही मेरा पैतृक गाँव है। इस धरती के कई ऐसे लाल हैं जो देश और दुनिया में अपना परचम लहरा रहे हैं। मीडिया में सबसे पहली श्रेणी में नाम आने वाले पुन्य प्रसून बाजपयी भी इसी प्रखंड से तालुकात रखते हैं। मैं बचपन से ही इन्हें अपना आदर्श मानता आ रहा हूँ। करीबी हैं शायद इसलिए भी। इनके अलावा एक और वैक्ति हैं जिनकी जीवन शैली और काम करने का ढंग से मैं खासा प्रभावित हुआ हूँ। वो हैं "दिलीप कुमार झा "।
झारखण्ड में भ्रस्टाचार का कोई सानी नहीं नहीं है। हर दिन नए मामले प्रकाश में आ रहे हैं। चाहे कोई भी हो अपने आप को इस भस्मासुर से अलग नहीं कर पा रहा है। लेकिन कुछ ऑफिसर अभी भी ऐसे हैं जिनका दामन साफ़ है। उन्ही में एक हैं दिलीप झा। उस समय मेरी उम्र करीब १०-११ साल के करीब होगी, चौक पर मेन रोड के बगल में मेरा स्कूल था। उसी के बगल में प्रखंड कार्यालय था। उसी प्रखंड में सीओ के पद पर वो आसीन थे। लेकिन तब तक मैं उनके बारे में कुछ नहीं जनता था। गांव में पूरी तरह से बड़ी जाती वाले का दबदबा था। चाहे गांव का प्रमुख हो या सरपंच या फिर मुखिया सभी पर उन लोगों का एकाधिकार था। चौक की लगभग सारी जमीन पर उनलोगों का कब्ज़ा था।
लोग दिलीप झा को नानापाटेकर के नाम से पुकारते थे। दबे-कुचले गरीब लोगों के ये मसीहा कहलाते थे। ये किसी भी काम में अपने सहयोगियों का सहारा नहीं लेते अपने दम पर ये लड़ते थे। मेरी उनसे मुखातिब होने की बड़ी इच्छा हो रही थी. मैं स्कूल से छुट्टी के वक़्त घर की ओर लौट रहा था। तभी देखा की चौक पर सरकारी जमीन पर अवैध रूप से लगाये गए सभी दुकान को कोई हटा रहा है। मैं भी भीड़ में शामिल हो कर तमाशा देखने लगा। पुलिस और कई सरकारी कर्मचारी भी इसके गवाह बन रहे थे। तभी किसी के मुह से निकला की "कैसन सीओ बा सब काम अपने से करत बा "। तभी मुझे पता चला की यही है दिलीप झा। सच में एकदम लग रहा था की कोई फिल्म देख रहे हैं। हीरो की माफिक वो दुकान और बसेरा तोड़ रहे थे। उम्र और अनुभव के आधार पर इनकी प्रोनात्ति होती चली गयी। वो बीडीओ बन कर भी इसी गांव में आये और लोगों की सेवा की। फिर ये गोड्डा के ही एसडीओ बने। जब ये गोड्डा के एसडीओ बन कर आये थे तो सारे इलाके में तहलका मच गया था। सभी अवैध धन्दा करने वाले अपना बोरिया बिस्तर समेट लिये थे। वो रात दिन कभी भी छापा मार देते थे। वो कहाँ जा रहे हैं ये बात उनके ड्राइवर को भी पता नहीं रहता था।
सुनी हुई बात है की जब उनकी लातेहार में पोस्टिंग हुई तो नक्सलीओं ने उनकी बीबी का अपहरण कर लिया था। और उसके एवज में पैसों की मांग कर रहे थे। उन्होंने पैसा देने से साफ़ मना करते हुए कहा था की मेरी बीबी की सिर्फ इज्ज़त मत लूटना। चाहो तो तुम मार सकते हो लेकिन मैं पैसा नहीं दूंगा। गज़ब का काम करने का उनका अंदाज़ है। आज तक किसी की मजाल नहीं की कोई उनपर ऊँगली उठा सके। आज वो फिर से एक बार उसी गोड्डा जिला में डीडीसी के पद पर आये हुए हैं। और अपने वही पुराने रंग में देख रहे हैं। सभी अवैध कारोबारी अपना बोरिया बिस्तर फिर से समेटने लगे हैं।
झारखण्ड जैसे भ्रष्ट राज्य में दिलीप झा जैसा ऑफिसर अपने आप में एक मिसाल है। दुसरे ऑफिसर को उनसे सिख लेनी चाहिए। मुझे तो इनमे फिल्म नायक के नायक अनिल कपूर भी दिखते हैं। सिर्फ एक दिन का सीएम। काश एक बार दिलीप झा को एक दिन का सीएम बना दिया जाये। मज़ा आ जायेगा। मेरा दावा है की सिर्फ एक महीने में पूरे झारखण्ड की तस्वीर बदल जाएगी।
आज झारखण्ड को दिलीप झा जैसे कई हाथों की जरुरत है जो एक साथ मिलकर इस प्रदेश की तक़दीर और तस्वीर बदल सकें। क्यूंकि कहा जाता है की अकेले चना बांड नहीं फोड़ सकता है। जागो झारखंड जागो !!
जय हिंद।

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