आज के लोग समझते हैं क्रिकेट देखने और क्रिकेट के बारे में चर्चा करने से वे नए ज़माने के लोग कहलायेंगे। शायद इसलिए क्रिकेट का ककहरा भी नहीं जानने वाले क्रिकेट की चर्चा में मशगुल हैं और खुद को मौड साबित करने में तुले हैं। ठीक वैसे ही जैसे एक गाँव की लड़की शहरी बनने के चक्कर में पूरा मुह लिपस्टिक से पोत लेती है और बड़ा ही कोणफिड़ेंस से क्लोजअप स्माइल छोडती है। दरअसल क्रिकेट भारत में देश भर के तंग गली मोहल्ले और रूखे सूखे मैदान से होते हुए कब अरबों का धंधा हो गया पता ही नहीं चला। कब रांची के गुदड़ी मैदान में माँ - बाप की डांट फटकार सुनकर पचास पचास रुपये का मैच खेलने वाला अपना माही इतना बड़ा सितारा बन गया पता ही नहीं चला। कब किसी की भी फुसफुसाहट तक को सुनने वाला माही पांच घंटे तक हजारों की संख्या में माही माही की आवाज़ बुलंद करने के बाद भी अपने चकाचौंध में बहरे हो गया पता ही नहीं चला। कब हाथों में हाथ डाल कर साथ चलने वाला अपना माही उसी हाथ पर पुलिस के डंडो का जख्म दे गया पता ही नहीं चला। कब रेडियो से निकलकर क्रिकेट टेलीविजन पर छा गया पता ही नहीं चला। कब अख़बार के एक कोने में छपने वाली क्रिकेट की खबर देखते ही देखते हेड लाइन बन गयी पता ही चला। अगर कुछ पता चला तो यह की दुनिया की छाती पर हॉकी का गुमान रौन्धने वाले आज हासिये पर हैं और हम अपनी ही पहचान को खोकर खुद पे इतर रहे हैं। किसी ने सही कहा है की बदलाव के इस अंधी दौड़ में भारत नकलची में सबका बाप बन गया है।